विश्व प्रसिद्ध है ऐतिहासिक रणथम्भौर दुर्ग

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हर वर्ष देखने आते हैं हजारों पर्यटक

जयपुर. ऐतिहासिक प्राचीन सुदृढ़ दुर्ग सवाई माधोपुर रणथम्भौर बाघ परियोजना के पश्चिम में स्थित है जो रणथम्भौर दुर्ग के नाम से विश्व विख्यात है। यह दुर्ग जिला मुख्यालय से 14 किलोमीटर दूर एवं समुद्रतल से 1579 फीट की ऊंचाई पर विश्व की प्राचीनतम अरावली एवं विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं की संधि स्थल पर स्थित है। रण एवं थम्भौर नाम पहाड़ियों पर निर्मित होने के कारण इसका नाम रणथम्भौर दुर्ग पड़ा।

रणथम्भौर दुर्ग वास्तुकलां के अनुसार गिरि दुर्ग की श्रेणी में आता है। इसका निर्माण पहाड़ी के ऊपर स्थित समतल भू-भाग पर किया गया है। पहाड़ी की तीखी कटान प्राकृतिक अवरोध का कार्य कर किले को अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करती है, जबकि बाहर की ओर प्राकृतिक खाई दुर्ग में प्रवेश को दुरूह बनाती है। पहाड़ी की कटान के साथ-साथ ही कई किलोमीटर लम्बी विशााल रक्षा प्राचीर दुर्ग की सुरक्षा पुख्ता करती है। यहां नियमित अंतराल के बाद जगह-जगह अर्द्ध वृत्ताकार बुर्जो का निर्माण किया गया है जो रक्षा प्राचीर को स्थायित्व देने के साथ-साथ सुरक्षा प्रहरियों के आश्रय स्थल का भी कार्य करते थे।

यह दुर्ग विषम आकृति वाली ऊंची नीची सात पर्वत श्रेणियों से घिरा है, जिनके बीच-बीच में गहरी खाइयां और नाले हैं, जो इस क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली चम्बल और बनास नदियों से मिलते हैं। रणथम्भौर दुर्ग एक ऊंचे गिरि शिखर पर बना है इसकी स्थिति कुछ ऐसी विलक्षण है कि दुर्ग के समीप जाने पर ही यह दिखाई देता है। रणथम्भौर का वास्तविक नाम रन्तःपुर है अर्थात रण की घाटी में स्थित नगर, रण उस पहाड़ी का नाम है जो किले की पहाड़ी से कुछ नीचे है एवं इसी से इसका नाम रणस्तम्भपुर (रण + स्तम्भ + पुर) हो गया।

यह दुर्ग चातुर्दिक पहाड़ियों से घिरा है जो इसकी नैसर्गिक प्राचीरों का काम करती है। दुर्ग की इसी दुर्गम भौगोलिक स्थिति को लक्ष्य कर शहंशाह अकबर के दरबारी अबुल फजल ने लिखा है यह दुर्ग पहाड़ी प्रदेश के बीच में है इसीलिए और दुर्ग नंगे है परन्तु यह दुर्ग बख्तरबंद कहलाता है। वीर विनोद के लेखक कविराजा श्यामदास ने दुर्ग के दुर्भेद्य स्वरूप को प्रकट करते हुए लिखा है- रणथम्भौर के हर तरफ गहरे और पेचदार नाले व पहाड है जो तंग रास्तों से गुजरते हैं। ऊपर जाकर पहाड़ी की बुलन्दी एकदम सीधी है। इतिहासकार ओझाजी ने इस दुर्ग के प्राकृतिक परिवेश की चर्चा करते हुए लिखा है कि रणथम्भौर का किला अंडाकृति वाले एक ऊंचे पहाड़ पर बना है जिसके प्रायः चारों ओर विशाल पहाड़ियां हैं जिनको किले की रक्षार्थ कुदरती दीवारें कहा जा सकता है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीक्षण पुरातत्वविद् के अनुसार इस दुर्ग के चार प्रमुख प्रवेश द्वार हैं:- हथिया पोल, सूरज पोल, सतपोल व दिल्ली गेट। दुर्ग में अधिकतर ऐतिहासिक इमारतें दक्षिण पूर्वी ओर स्थित है। जनश्रुतियों के अनुसार यादव वंश के महाराणा जयन्त द्वारा पांचवीं सदी में रणथम्भौर दुर्ग का निर्माण करवाया गया जबकि कुछ सन्दर्भो में दुर्ग निर्माण का श्रेय 944 ई. में चौहान शासन सपलदक्ष को दिया जाता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों में रणथम्भौर दुर्ग निर्माण का प्रथम संदर्भ हम्मीर रासों में मिलता है जिसके अनुसार दुर्ग का निर्माण पद्म ऋषि के आशीर्वाद से जैतारा द्वारा सन् 1053 ई. में करवाया गया। पृथ्वीराज प्रथम के 1105 ई. के जीनमाता अभिलेख में राजा द्वारा दुर्ग परिसर स्थित जैन मन्दिर में स्वर्ण कपोला दान का उल्लेख है। कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1194 ई. में दुर्ग पर अधिकार कर लिया किन्तु शीघ्र ही उसे यह दुर्ग राजपूत राजाओं को सौंपना पड़ा। समसामयिक साहित्य में गोविन्द राज, वाल्हन देव, प्रहलाद देव, वीर नारायण वागभट् आदि राजाओं के तेरहवीं शताब्दी के प्रथम उत्तरार्द्ध में दुर्ग पर शासन करने का उल्लेख मिलता है।

सन् 1283 ई. में सिंहासनारूढ़ होने वाले राजा हम्मीरदेव को रणथम्भौर दुर्ग के सबसे प्रतापी शासक के रूप में जाना जाता है। उनके काल में 1290 ई. में खिलजी साम्राज्य के प्रथम सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर दुर्ग फतेह करने का असफल प्रयास किया। 1299 ई. में अलाउद्दीन ने स्वयं रणथम्भौर कूच किया तथा दुर्ग के पास रण डूंगरी में घेरा डाला। लम्बी घेरेबन्दी के पश्चात् भी राणा हम्मीर के हथियार नहीं डालने पर अलाउद्दीन ने कूटनीति का सहारा लिया व हम्मीर के विश्वास पात्र सलाहकार रतिपाल को अपनी ओर मिला लिया। सामने दिख रहे युद्ध के रक्तपात को देखते हुए हम्मीर की पुत्री देवल देवी ने अपने आपको अलाउद्दीन को सौंपने का आग्रह अपने पिता से किया किन्तु इसे अपनी शान के विरूद्ध समझते हुए हम्मीर ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

विषम परिस्थितियों में हम्मीर की पत्नी रंगा देवी पुत्री देवल देवी एवं अन्य वीरांगनाओं ने जौहर किया। अलाउद्दीन से हुए युद्ध में हम्मीर देव वीरता से लड़ा एवं पराजय सामने देखकर सतपोल द्वार के पास स्थित शिव मन्दिर के निकट अपना सिर धड़ से अलग कर लिया और अन्ततः जुलाई 1301 ई. में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर दुर्ग पर विजय हासिल की। हम्मीर देव की मृत्यु के उपरान्त रणथम्भौर के चौहान वंश का पतन हो गया।

एक अन्य घटना जिसने रणथम्भौर दुर्ग की राजनैतिक परिस्थितयों पर प्रभाव डाला वह थी महाराणा कुम्भा का सन् 1433 ई. में चित्तौड़ के सिंहासन पर आसीन होना। मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम ने सन् 1446 ई. में रणथम्भौर दुर्ग पर आक्रमण कर सैफुद्दीन को यहां का सिपहसालार नियुक्त किया। महमूद खिलजी व महाराणा कुम्भा दोनो महत्वाकांक्षी शासक थे। इसलिए उनके मध्य रणथम्भौर विजय के लिए युद्ध भी अवश्यंमभावी था। महमूद व बून्दी शासक मेदनीराय के बीच हुए युद्ध में राणा सांगा ने मेदनीराय की सहायता कर महमूद को पराजित किया। जिसके परिणाम स्वरूप रणथम्भौर दुर्ग सीधा मेवाड़ राज्य के अधीन आ गया।

सन् 1527 ई. में खानवा के युद्ध में बादशाह बाबर से हारने के बाद राणा सांगा ने रणथम्भौर दुर्ग में शरण ली एवं बाबर से बदला लेने के लिए पुनः शक्ति एकत्र करने लगा किन्तु राणा सांगा के समर्थक इससे सहमत नहीं थे। कहा जाता है कि मेदनीराय की बाबर के विरूद्ध चन्देरी में हो रहे युद्ध में समर्थन के लिए जाते समय कालपी के निकट जहर दिए जाने से मृत्यु हो गई।

मुगल साम्राज्य का शासक बनने के बाद बादशाह अकबर ने सन् 1559 ई. में हबीब अली खाँ के नेतृत्व में सेना को रणथम्भौर दुर्ग फतह का हुकूम दिया जो कि उस समय हाजी खान के अधिकार में था जिसे शेरशाह सूर द्वारा नियुक्त किया गया था। शाही सेना ने रणथम्भौर की ओर कूच किया व रास्ते में पड़ने वाले स्थानों पर भारी लूटमार मचाते हुए दुर्ग पर घेरा डाला किन्तु आगरा में बैरम खां के निष्कासन व बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों के मद्देनजर सेना द्वारा यह घेरा उठा लिया गया।

अकबर ने वैवाहिक संबंध स्थापित कर राजस्थान के अन्य शासकों से मित्रता कर ली थी परन्तु मेवाड़ इसका अपवाद रहा। रणथम्भौर दुर्ग पर विजय प्राप्त करने के लिए स्वयं अकबर ने 1559 ई. में दुर्ग पर घेरा डालने हेतु रणडूंगरी में डेरा डाला और सेना को आदेश दिया कि पास की पहाड़ियों तक तोपखाना ले जाने हेतु रास्ते का निर्माण किया जाये ताकि गोलाबारी कर दुर्ग की मजबूत रक्षा प्राचीर को ध्वस्त किया जा सके। राजा सुरजन के लिए हार मानने का प्रस्ताव अपमानजनक था परंतु ऐसे समय में आमेर के राजा भगवानदास ने रणनीतिक बीच बचाव किया व सुरजन को हथियार डालने हेतु राजी कर लिया। सुरजन ने मार्च, 1569 में रणथम्भौर दुर्ग अकबर को सौंप दिया। अकबर ने अनीसुद्दीन खान को रणथम्भौर का सेना नायक नियुक्त किया। 1601 ई. में बादशाह अकबर ने एक बार पुनः रणथम्भौर का अवलोकन किया। रणथम्भौर दुर्ग अहमदशाह के शासनकाल तक मुगलों के अधीन रहा एवं सन् 1754 में एक फरमान जारी कर इसे सवाई माधोसिंह को सौंप दिया।

सन् 1761 में पुनः कोटा राज्य की सेनाओं ने रणथम्भौर दुर्ग पर आक्रमण कर सवाई माधोसिंह की सेना को परास्त किया। भटवाड़ा में हुए इस युद्ध में यद्यपि माधोसिंह की सेना परास्त हुई लेकिन रणथम्भौर उनके आधिपत्य में बना रहा। दुर्ग की प्रशासनिक व्यवस्था चलाने हेतु उन्होंने सात किलेदार नियुक्त किए। तत्पश्चात् भारत की स्वाधीनता तक रणथम्भौर दुर्ग जयपुर रियासत का हिस्सा बना रहा। वर्तमान में यह दुर्ग राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक होने के साथ-साथ विश्व दाय स्मारक भी है। हम्मीर महल, रानी महल, हम्मीर कचहरी, सुपारी महल, बादल महल, जौरां-भौरां, 32 खम्भों की छतरी, रनिहाड़ तालाब, पीर सदरूद्दीन की दरगाह, लक्ष्मीनारायण मंदिर (भग्न रूप में), जैन मंदिर तथा समूचे देश में प्रसिद्व गणेश जी का मंदिर दुर्ग के प्रमुख स्थान हैं। किले के पार्श्व में पद्मला तालाब तथा अन्य जलाशय हैं।

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