कहानी
एक गांव था ईश्वरीसिंहपुरा, उसमें एक किसान परिवार रहता था। किसान के तीन बेटे थे। आर्थिक हालात अच्छे नहीं होने के कारण बड़ा बेटा गणेश एक दो क्लास ही पढ़ पाया और उसे बचपन में ही पिता की खेती-किसानी में हाथ बंटाना पड़ा। इच्छा तो उसकी पढ़-लिखकर आगे बढ़ने की बहुत थी, लेकिन गरीबी में अनचाहे मिली मजबूरियों की बेड़ियां उसे इस कदर जकड़े हुए थी कि वह चाहकर भी अपना सपना पूरा नहीं कर पा रहा था। उसकी दिनचर्या पढ़ाई छूटने के साथ ही बदल चुकी थी। अब वह सुबह उठकर बस्ता संभालने के बजाय बाड़े में जाकर बकरियां संभालने लगा था। उसका यह रोजाना का काम हो गया था कि सुबह उठकर बकिरयों को चराने के लिए जंगल में ले जाना और शाम को उन्हें बाड़ में ले आना, लेकिन उसके मन में सुलग रही पढ़ाई की चिंगारी अभी ठंडी नहीं हुई थी। उसे बहुत कम उम्र में ही यह भली भांति समझ में आ गया था कि गरीब आदमी के पास आगे बढ़ने के लिए पढ़ाई के अलावा कोई चारा नहीं है। साथ ही उसे यह भी समझ आ गया था कि अब वह कभी स्कूल नहीं जा सकेगा, लेकिन उसने यह भी सोच लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए वह अपने दोनों छोटे भाइयों को जरूर अच्छी तालीम दिलवाएगा, जिससे कि उन्हें इस गरीबी और अभावों से भरी जिंदगी से छुटकारा मिल सके। अब उसने अपने छोटे भाइयों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया और वह खेती के साथ बकरियां चराने का काम करने लगा। समय गुजरता गया और उसका छोटा भाई चैनसिंह ग्यारहवीं कक्षा जैसे-तैसे कर पास कर गया। उन्हीं दिनों पास ही स्थित शहर दौसा में फौज में जवानों की भर्ती चल रही थी, जिसके लिए दौसा में सेना के अफसर सहित अन्य कार्मिक डेरा जमाए हुए थे। गणेश को कहीं से यह पता चल गया कि दौसा में आसाम राइफल्स के लिए जवानों की भर्ती की जा रही है तो उसने यह बात अपने छोटे भाई चैनसिंह को बताई। चैनसिंह तो फौज में भर्ती होने के लिए राजी हो गया, लेकिन उनके मां-बाप ने बेटे को फौज में भेजने से मना कर दिया। आखिर गणेश ने मां-बाप को जैसे-तैसे राजी कर लिया और भाई चैनसिंह को लेकर दौसा में जिस स्थान पर फौज की भर्ती हो रही थी, वहां पहुंच गया। सभी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद दौड़ की बारी आई और चैनसिंह अन्य युवाओं के साथ ट्रैक पर दौड़ने लगा। उधर गांव से साथ गया बड़ा भाई गणेश ट्रेक के पैरेलल ट्रेक से कुछ दूरी पर चैन सिंह के साथ अपने पैरों की दोनों जूतियों को हाथ में लेकर पूरे दम के साथ जोर-जोर से यह कहता हुआ दौड़ रहा था कि भाग चैन्या-भाग चैन्या। भाई के जुनून को देखकर चैनसिंह में भी इतना जोश जागा कि वह दौड़ में प्रथम आया और फौज में सलेक्ट कर लिया गया। चैनसिंह की नौकरी लग गई और हर महीने तनख्वाह घर आने लगी। धीरे-धीरे समय गुजरता गया और परिवार की स्थितियां सुधरती गई। आज भी उन भाइयों में इतना ही प्रेम है और बड़े भाई की शिक्षा के प्रति ललक के कारण ही दोनों भाइयों के बच्चे भी सरकारी नौकरियों में है। अब गरीबी उस घर का दामन छोड़कर कहीं दूर चली गई है।