जयपुर। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो अपनी भावनाओं का इजहार अश्कों के जरिए करता है। कभी बहुत ज्यादा खुशी होने पर आंसुओं की अविरल धारा बह निकलती है तो कभी गम की घटाओं से घिरने पर भी चक्षुओं के जरिए सैलाब निकल पड़ता है। कई बार होता है कि मनुष्य इतना भावुक हो जाता है कि उसके लबों से भावनाओं का इजहार शब्दों के जरिए नहीं हो पाता है यानी जब लब खामोश हो जाते हैं तो भावनाओं का इजहार अश्कों के जरिए होता है। अश्कों को इसलिए ही मोती कहा जाता है कि इनके जरिए आपकी उन भावनओं का इजहार होता है, जो अापसे गहरे से जुड़ी होती हैं और सामने वाले पर भी आंसुओं के जरिए प्रकट की गई भावनाओं की अमिट छाप पड़ती है। वैसे तमाम तजुर्बे ये साबित करते हैं कि मर्दों के मुकाबले औरतें ज्यादा रोती हैं।
मनोवैज्ञानिक विलियम फ्रे के 1982 के रिसर्च के मुताबिक महिलाएं औसतन महीने में पांच से ज्यादा बार रोती हैं। वहीं उनके मुकाबले महीने में रोने का मर्दों का औसत डेढ़ बार भी नहीं है। जब कोई महिला रोती है तो औसतन पांच से छह मिनट रोती है। उनके मुकाबले आदमी रोने में दो से तीन मिनट ही खर्च करते हैं। हॉलैंड के मनोवैज्ञानिक एड विंगरहोएट्स ने रोने पर खूब रिसर्च की है। वो बताते हैं कि औरतों और मर्दों के बीच रोने का ये फर्क बचपन से ही आ जाता है। हालांकि जब बच्चा पैदा होता है तो लड़की हो या लड़का, दोनों ही बराबर रोते हैं। नवजात बच्चे इसलिए रोते हैं ताकि अपने मां-बाप का ध्यान अपनी तरफ खींच सकें। वहीं बड़े होने पर व्यक्ति कई बार भावावेग में अपनी भावनाओं का इजहार आंसुओं के जरिए करता है। फिर आखिर क्या होता है कि बड़े होने पर औरतों और मर्दों के रोने में इतना फर्क आ जाता है। इसमें अलग-अलग समाज के माहौल का भी असर पड़ता है, जहां पर रोने को बुरा नहीं मानते, उन देशों में लोग खूब रोते हैं। वहीं जहां रोना बुरा माना जाता है वहां पर लोग कम रोते हैं। विंगरहोएट्स के रिसर्च में एक और दिलचस्प बात सामने आई है वो ये कि अमीर देशों में लोग ज्यादा रोते हैं।
टेस्टोस्टेरोन हॉर्मोन का रोने से गहरा ताल्लुक
हालांकि विंगरहोएट्स ये मानते हैं कि समाज के साथ-साथ टेस्टोस्टेरोन नाम के हॉर्मोन का भी हमारे रोने से गहरा ताल्लुक है। वो ये बताते हैं कि प्रोस्टेट कैंसर के शिकार लोगों को इलाज के वक्त जो दवाएं दी जाती हैं, उनसे टेस्टोस्टेरोन कम निकलता है। इसी वजह से प्रोस्टेट कैंसर के मरीज़ ज्यादा रोते हैं, हालांकि आप ये भी कह सकते हैं कि वो इसलिए ज्यादा रोते हैं क्योंकि उन्हें कैंसर हो गया होता है। तमाम जीवों में इंसान ही है जो इमोशनल होकर रोता है। पहले कहा जाता था कि हाथी भी रोते हैं। मगर अब तक इसका कोई पक्का सबूत नहीं खोजा गया है। हम तकलीफ में भी रोते हैं और कई बार खुशी में भी हमारे आंसू निकल आते हैं।
रोने के बाद बेहतर महसूस करते हैं लोग
कुछ लोग कहते हैं कि इंसान सामाजिक प्राणी है। इसलिए कई बार वो रोकर अपने एहसास बयां करता है, लेकिन इसका भी कोई पक्का सबूत नहीं है। शायद जरूरत से ज्यादा इमोशनल हो जाने पर लोग रोने लगते हैं। विंगरहोएट्स अपने तजुर्बे से बताते हैं कि लोग रोने के बाद बेहतर महसूस करते हैं। वर्ष 2015 में उन्होंने कुछ लोगों से कुछ खास फिल्में देखने को कहा। फिल्म देखने से पहले का उनका मूड पूछा गया, फिर फिल्म देखने के बाद के उनके एहसास बयां करने को कहा गया। इनमें से एक बहुत ही इमोशनल फिल्म थी तो दूसरी कॉमेडी फिल्म। फिल्म देखने के बीस मिनट बाद लोगों से एक फॉर्म भराया गया। यही फॉर्म उनसे दो घंटे बाद भी भरने को कहा गया। इस तजुर्बे के नतीजे एकदम साफ थे। जो लोग फिल्म देखते वक्त नहीं रोए, उनकी दिमागी हालत में कोई फर्क नहीं दिखा। वहीं रोने वालों के फॉर्म में बीस मिनट बाद और दो घंटे बाद के हालात में काफी बदलाव दिखा। वो रोने के बाद अच्छा महसूस कर रहे थे। कुल मिलाकर रोने का रहस्य अभी भी रहस्य ही है। इस पर अभी और रिसर्च की जरूरत है। शायद तब हमें रोने की वजह मालूम हो, तब तक जब जी चाहे रोइए, इससे आप बाद में बेहतर ही महसूस करेंगे।
कई बार चाहकर भी नहीं रो पाते हम
जिंदगी में कई बार हो सकता है आपने भी महसूस किया हो, बहुत से ऐसे मौके या बातें आती हैं, जिनमें हम ‘हर्ट’ हो जाते हैं। कोई बात, किसी का कोई काम दिल को इतना चुभ जाता है कि हम अंदर से दुखी हो जाते हैं। बहुत दुखी। लेकिन दिखा नहीं पाते। जता नहीं पाते। रो नहीं पाते। हालांकि, इस न रो पाने के कारण बहुत हो सकते हैं। कभी इमोशनल, कभी फिजिकल या कभी-कभी ‘सेल्फ रेस्पेक्ट’ के चलते। रोने के इमोशन के साथ कई बार मैंने एक बात नोटिस की है, वो है, प्रत्यक्ष होना। कभी-कभी आपको आश्चर्य भी होता होगा, कि जिन बातों पर लोगों को आसानी से रोना आ जाता है, उन्हीं बातों पर आपका एक भी आंसू कोशिश करने पर भी नहीं निकलता? हो सकता है बेहद अप्रिय या संकटपूर्ण परिस्थितियों का सामना करते हुए भी आपको रोने का मन न करता हो या आप रो न पाते हों! रोने की अक्षमता के पीछे कभी-कभी चिकित्सकीय और भावनात्मक कारण हो सकते हैं।
बेहतर मैनेज होता है भावनात्मक तनाव
रोना अक्सर भावनात्मक रूप से कठिन परस्थितियों से जुड़ा होता है। फिर भी आपको यह जानना चाहिए कि रोने के शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक लाभ होते हैं। मनोवैज्ञानिकों की मानें तो रोने से व्यक्ति अपने ‘भावनात्मक तनाव’ को बेहतर ढंग से मैनेज कर पाता है।’ इतना ही नहीं, कई बार जहां, रोना किसी के खराब मूड को ठीक कर सकता है। वहीं, रोने से नींद में सुधार हो सकता है। रोने से आपकी मनोदशा सुधारने में मदद मिलती है। साथ ही रोने से प्रतिरक्षा प्रणाली दुरुस्त रहती है। यहां, इस बात का यह मतलब नहीं कि आपको हर समय रोते ही रहना है। बल्कि कहने का अर्थ यह है, कि जब हम अंदर परेशान होते हैं, दुखी होते हैं, हर्ट होते हैं, असहज होते हैं, तो उन परिस्थितियों में रोना हमारे लिए लाभदायक होता है। बिल्कुल किसी दवा की तरह।
जन्म के तुरंत बाद नहीं रोने पर विक्षिप्त होने का खतरा
शोध बताते हैं कि रोने से हमारे शरीर से ऑक्सीटोन और एंडोर्फिन नामक हार्मोन रिलीज होते हैं, जो तनाव से संबंधित हार्मोन मसलन, एडिनोकोर्टिकोट्रोपिक हार्मोन को कम करते हुए शारीरिक और मानसिक दर्द से राहत दिलाने में मदद करता है। पैदा होने के बाद एक बच्चा सबसे पहले रोता है। यह एक अच्छी बात है! क्योंकि, तब ही वह नॉर्मल माना जाता है। नवजात के पास इसके अलावा कोई शब्दावली नहीं होती? जबकि, जो बच्चे पैदा होेने के तुरंत बाद रोते नहीं हैं, उनके ‘मानसिक विक्षिप्त’ होने का खतरा बढ़ जाता है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि किसी की भावनाओं को रोकने, या रोने की क्षमता को सीमित करने से अवसाद, चिंता, घबराहट या चुप हो जाना, जैसे नकारात्मक परिणाम झेलने पड़ सकते हैं।
शर्म और सामाजिक रूढ़ियां
जब तक हम बच्चे होते हैं। रोना हमारे लिए कितना आसान होता है। भूख लगी तो रोने लगे, मम्मी-पापा ने बात नहीं मानी? रोने लगे। किसी ने डांटा रोने लगे। यानी तुरंत ही सारी टेंशन रिलीज। वो भी बिना किसी शर्म या हिचक के। …इसके विपरीत। बड़े होने के बाद रोना हमारे लिए उतना ही कठिन ‘इमोशन’ हो जाता है। अपने आंसू ही इतने भारी लगने लगते हैं कि क्या कहा जाए! बहुत बार ऐसी सिचुएशन आती हैं, जब मन तो कह रहा होता है कि चीख-चीख कर रोएं। लेकिन आंसुओं का दम घोंट कर बस, नॉर्मल होने की एक्टिंग करते रहते हैं। क्योंकि वयस्क होने तक हम अपने आंसुओं को प्रबंधित यानी मैनेज करना सीख लेते हैं। कहां रोना है? कब रोना है? किसके सामने रोना है, किसके नहीं? कैसे रोएं कि बाद में शर्मिन्दगी न उठानी पड़ें। इन सब के चक्कर में पड़ कर हम पूरी तरह ‘आर्टिफिशियल’ यानी नाटकीय हो जाते हैं। लेकिन रोना एक बेहद स्ट्राॅन्ग इमोशन है। न रो पाने के ये कारण कभी-कभी लोगों को डिप्रेशन, घबराहट या गहरी चुप्पी की तरफ भी खींच ले जाते हैं। इसलिए लोगों को अपने इस इमोशन को मैनेज करने के बजाए व्यक्त करने की ही आदत डालनी चाहिए।
लड़के हैं तो रो नहीं सकते
लड़का होकर, लड़कियों की तरह रोते हो? कैसे, बात-बात पर लड़कियों की तरह शिकायत करते रहते हो। स्ट्राॅन्ग बनो। लड़के रोते नहीं! हैंडल करना सीखो। लड़के या बचपन से यही सुनते बड़े होते हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि उन्हें यही सिखाया जाता है कि वह लड़के हैं। इसलिए रो नहीं सकते। यह इमोशन उनके लिए नहीं है, जिससे उनके जेहन में यह गहरे, घर कर जाता है कि रोना, यानी अपनी कमजोरी दर्शाना।
बच्चे रोएं तो चुप नहीं कराएं
कभी-कभी बच्चों को चुप करने के लिए अभिभावक ऐसे कुछ चीजें करते हैं। जैसे- अगर मुंह से आवाज आई तो सोच लेना? तुम फिर से रोए? अब अगर मैंने तुम्हें रोते देखा, तो तुम्हारा टीवी देखना कैंसिल या खाना नहीं मिलेगा? यह सब वे एक्सप्रेशंस हैं, जिनका उपयोग कई बार हम जाने-अनजाने, बच्चों को शांत करने के लिए करते हैंै। यह समझे बगैर कि आपका यह कदम उनके भोले मन पर रोने के विपरीत कारणों को विकसित कर देगा। वह या तो सिसकियां भरते रह जाएंगे या चुप रहने लगेंगेे। क्योंकि वो यह मानने लग जाएंगे कि ऐसा करने से उन्हें इसके और भी विपरीत परिणाम झेलने पड़ जाएंगे।
भावनात्मक परेशानियां
लंबे समय तक न रोना या रोने का मन करे, लेकिन आंसुओं को अपने अंदर रखना। किसी को भी ‘डिप्रेशन या एंग्जाइटी’ की तरफ धकेल सकता है, जिससे, व्यक्ति पागल भी हो सकता है। भावना शून्य हो सकता है। किसी की मृत्यु या कोई गहरा आघात लगने पर व्यक्ति को रोने के लिए उकसाया जाता है। उसका यही कारण होता है क्योंकि कुछ न महसूस करने से बदतर कुछ भी नहीं हो सकता।
लोग क्या कहेंगे की नहीं करें परवाह
जो लोग समाज की ज्यादा चिंता करते हैं। यानी जिन्हें ‘लोग क्या कहेंगे?’ की जरूरत से ज्यादा चिंता रहती है। वो अपने इस इमोशन को बेहद कंट्रोल में रखते हैं। क्योंकि वह नहीं चाहते कि कोई उन्हें रोते हुए देखे! ऐसा करने के उनके अपने कारण हो सकते हैं। जैसे- उनकी पब्लिक इमेज, लोग उन्हें कैसे देखते हैं? वगैरह। जैसे, यदि किसी व्यक्ति को हम यह कहते हैं कि तुम बहुत स्ट्राॅन्ग हो यार, सब कुछ झेल लेते हो, फिर भी मुस्कुराते रहते हो। इतनी मुश्किलों में भी तुमने हिम्मत नहीं हारी? वगैरह। तो वह व्यक्ति अगली बार आपसे अपनी मनः स्थिति कहने से डरेगा। बचेगा। क्योंकि, वह यह जानता है कि आपकी नजर में उसकी इमेज इसके एकदम विपरीत है।
आखिर क्यों सूख जाते हैं आंसू
कभी-कभी, बीते समय में हम कुछ ऐसी स्थितियों या परिस्थितियों को झेल चुके होते हैं या झेलते आ रहे होते हैं कि फिर बात-बात पर हमारे आंसू निकलना बंद हो जाते हैं। बहुत आसानी से हमारा रोना नहीं छूटता। कुछ तो यह इसलिए होता है कि हमारी सहने की भी एक सीमा होती है। जब वह पार हो जाती है तो हम अंदर से कठोर हो जाते हैं। इसके अलावा उम्र के साथ हम परिपक्व हो जाते हैं। इसलिए भी रोना कम कर देते हैं। किस बात के लिए कितना रिएक्ट करना है? इसकी भी समझ हमें थोड़ा अपनी ओर खींच लेती है। मानसिक विकार जैसे ‘सिजोफ्रेनिया’ से रोना कठिन या असंभव बन सकता है। इसे ‘फ्लैट इफेक्ट’ के रूप में जाना जाता है। ऐसे लोग सामान्य लक्षण प्रदर्शित करने में असक्षम होते हैं।
कुछ दवाएं भी करती हैं इमोशंस काे ब्लंट
कुछ दवाएं भी भावनात्मक ब्लंटिंग में भूमिका निभा सकती हैं। बहुत ज्यादा एंटीडिप्रेसेंट लेने वाले लोग सामान्य प्रतिक्रिया व्यक्त करने में खुद को ‘कुंद’ पाते हैं। सामान्य हंसी-मजाक, दुख, अकेलापन ऐसी चीजों में कैसे रिएक्ट करें? इसकी समझ उनकी करीब-करीब नगण्य होती है। भावनाओं, तनाव और अपने मन को व्यक्त करने के लिए कभी-कभार रोना महत्वपूर्ण है। आंसू इस बात का प्रमाण हो सकता है कि हम अपने मन को हल्का करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। हालांकि, इसे एकमात्र तरीका नहीं माना जा सकता। क्योंकि कभी-कभी जब हम दुखी होते हैं, तो रोने के साथ-साथ अपना मन भी हल्का करना चाहते हैं तो ऐसे दोस्त या करीबी से बात करें, जिस पर आप भरोसा करते हों।
मिलता है सुकून
कभी जब दुखी हों या रोने का मन करे और सबके सामने आप खुद को असमर्थ महसूस करें तो अकेले में मन हल्का कर लें। इससे भी आपको काफी रिलीफ मिलेगा। ‘कहने से मन हल्का होता है’ यह बात यूं ही नहीं कही गई। इसलिए जब मन ज्यादा भारी हो जाए तो किसी विश्वासपात्र से अपने दिल का हाल जरूर कहें। यह सच में हीलिंग होता है। साथ ही जब हमदर्दी में कोई कंधे पर हाथ रखकर हौले से बोले- ‘रो लो, मन हल्का हो जाएगा।’ तो जो बांध टूटता है, उसे टूट जाने दें। इसे रोकने से दिमाग की नसें फटने लगती हैं, सिर में दर्द रहता है। लेकिन व्यक्त करने से सुकून मिलता है।
एक बात याद रखें हंसने की ही तरह, रोना भी एक बहुत ‘स्ट्रॉन्ग इमोशन’ होता है। इसलिए खुद को व्यक्त करना हो, दिल को सुकून देना हो या अपनी बात किसी को समझाना हो। इस इमोशन का बिना शर्म या संकोच के उपयोग करें। अच्छा फील होगा।