सीटें बढ़ी न वोट शेयर, फिर भी लड्डू बांट रही BJP

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पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव नतीजे बढ़ा रहे भाजपा-कांग्रेस की टेंशन

जयपुर। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों का भाजपा जोरदार जश्न मनाने में मशगूल है और मिठाइयां बांटी जा रही हैं, लेकिन सच इस जश्न से काफी दूर है। भाजपा केवल त्रिपुरा में ही बहुमत प्राप्त कर सकी है, जहां भी उसे वर्ष 2018 के चुनाव से 3 सीट कम मिली हैं। वहीं वोट शेयर भी 43.4% से घटकर 38.97% पर आ गया है। मेघालय में भी भाजपा केवल दो सीट जीत पाई है। वर्ष 2018 में भी उसे दो सीट पर ही कामयाबी मिली थी। हालांकि इस राज्य में उसके वोट प्रतिशत में 0.26 प्रतिशत की मामूली बढ़ोतरी हुई। मेघालय में बड़ा नुकसान कांग्रेस को हुआ है। उसने वर्ष 2018 में 21 सीटें जीती थी। इस बार वह केवल 5 सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी है। नगालैंड में भाजपा के सहयोगी दल ने एनडीपीपी ने 25 सीटें जीती हैं, लेकिन यहां भी भाजपा का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा है। वह केवल 12 सीट पर ही जीत दर्ज कर पाई जबकि भाजपा ने यहां 20 सीटों पर चुनाव लड़ा था। कुछ ऐसी ही हालत कांग्रेस की है, जो उपचुनाव में जीत काे जश्न के रूप में ले रही है, लेकिन तीन राज्यों के चुनाव में हुए नुकसान की अनदेखी में लगी है। उसे बड़ा नुकसान मेघालय में हुआ है, लेकिन इस बार उसका त्रिपुरा में खाता खुल गया है। वहीं नगालैंड में कांग्रेस एक भी सीट जीत पाने में कामयाब नहीं हो सकी है।

हालांकि पूर्वोत्तर के तीन राज्यों नगालैंड, त्रिपुरा और मेघालय में विधानसभा चुनावों के नतीजों ने एक बार फिर भाजपा का दिल बाग-बाग कर दिया है, लेकिन भाजपा को स्पष्ट बहुत केवल एक ही राज्य त्रिपुरा में मिला है, जहां वह स्वयं के बूते सरकार बनाने की स्थिति में है। लेकिन बाकी दो राज्यों में भी उसके सहयोगी दल सत्ता पर काबिज होने में कामयाब रहे हैं। कुछ विधानसभा चुनावों में हार के झटकों के बावजूद इन नतीजों ने भगवा पार्टी की जीत की लय को बरकरार रखा है। जीत की लय भाजपा के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कर्नाटक में मई में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसके बाद इस साल के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में भी विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। सोलह राज्यों में सत्ता में काबिज भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने नगालैंड में भी आसान जीत दर्ज की, जहां नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) उसका वरिष्ठ साझेदार है।

मेघालय में फिर मायूस हुई भाजपा

सत्ता विरोधी लहर और टिपरा मोथा के अच्छे प्रदर्शन के बावजूद सत्तारूढ़ भाजपा ने अपने ‘मिशन पूर्वोत्तर’ में त्रिपुरा में सत्ता बरकरार रखते हुए मनोबल बढ़ाने वाली जीत दर्ज की जबकि नेफ्यू रियो के नेतृत्व वाली नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के साथ मिलकर नगालैंड में भी कामयाबी हासिल की। मेघालय में भाजपा फिर से एक कनिष्ठ सहयोगी के रूप में सत्तारूढ़ सरकार का हिस्सा बन गई है। यहां मुख्यमंत्री कोनराड संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) 60 सदस्यीय विधानसभा में 26 सीट जीतकर भी बहुमत से दूर रह गई। पूर्वोत्तर के जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें मेघालय एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां भाजपा महज दो ही सीट पर सिमट पर गई। वर्ष 2018 के चुनाव में भी भाजपा ने यहां दो ही सीट जीती थीं। इस चुनाव में भाजपा ने नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और साथ में सरकार भी बनाई थी। हालांकि इस बार के चुनाव से ठीक पहले वह एनपीपी से अलग हो गई और अलग चुनाव लड़ी। वहीं, पूर्व में दोनों राज्यों में सत्ता में रह चुकी कांग्रेस के लिए नतीजे अच्छे नहीं रहे। मेघालय में कांग्रेस ने पांच सीट पर जीत दर्ज की, जबकि नगालैंड में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली।

टिपरा मोथा नहीं रोक पाई सत्ता की राह

त्रिपुरा में वाम दलों एवं कांग्रेस का पहला गठबंधन और जनजातीय सीटों पर एक प्रमुख ताकत के रूप में टिपरा मोथा का उभरना भी पूर्वोत्तर के इस राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता से बेदखल करने के लिए पर्याप्त साबित नहीं हुआ। सत्तारूढ़ पार्टी के लिए विकास के मुद्दे, वैचारिक जीवंतता और स्थानीय कारक एक और जीत दिलाने में सफल रहे। पूर्वोत्तर के जिन तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, उनमें त्रिपुरा के नतीजों पर लोगों की सबसे ज्यादा नजर थी। इसकी वजह यह थी कि इसमें तीन राष्ट्रीय दलों- भाजपा, कांग्रेस और वाम दलों के लिए काफी कुछ दांव पर लगा था।

पहले भ्रष्ट बताया, अब हाथ मिलाया

मेघालय में बड़े खिलाड़ी के रूप में उभरने की भाजपा की महत्वाकांक्षा विफल हो गई, क्योंकि इस बार भी वह दो सीटों पर सिमट गई। पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के दो ही उम्मीदवार जीते थे। भाजपा नेतृत्व ने मुख्यमंत्री कोनराड संगमा के नेतृत्व वाली सरकार पर देश की ‘सबसे भ्रष्ट’ राज्य सरकार होने का आरोप लगाया था, लेकिन दोनों पार्टियां अब फिर से एक साथ काम करने के लिए सहमत हो सकती हैं। भाजपा संगमा के नेतृत्व वाली सरकार का हिस्सा थी, लेकिन चुनाव से पहले वह अलग हो गई थी। हालांकि, त्रिपुरा के परिणाम भाजपा के लिए सबसे ज्यादा मायने रखते हैं, क्योंकि इसकी जीत ने इस पूर्ववर्ती वाम गढ़ में पार्टी की लोकप्रिय स्वीकृति को रेखांकित किया है, जिसे उसने 2018 में पहली बार जीता था। भाजपा के वोट प्रतिशत के साथ-साथ सीटों की संख्या में नुकसान हुआ है, लेकिन उसके लिए अच्छी बात ये रही कि वाम-कांग्रेस गठबंधन भी उसका मुकाबला करने में विफल रहा। भाजपा ने 60-सदस्यीय विधानसभा में 32 सीटें जीती हैं, जबकि 2018 में उसने 36 सीटों पर जीत दर्ज की थी। विपक्षी गठबंधन को 14 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। माकपा ने 2018 में 16 सीटें जीती थीं, जब उसने अपने दम पर चुनाव लड़ा था। पिछली बार कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी। हालांकि, भाजपा के लिए चिंता का विषय प्रद्युत देबबर्मा के नेतृत्व वाले टिपरा मोथा का उदय और आईपीएफटी का कमजोर होना है। भाजपा की सहयोगी आईपीएफटी इस बार एकमात्र सीट जीत सकी है। भाजपा को अपने ही सबसे प्रमुख जनजातीय चेहरे और उपमुख्यमंत्री जिष्णु देव वर्मा को टिपरा मोथा के प्रतिद्वंद्वी सुबोध देब बर्मा के हाथों हार की शर्मिंदगी का भी सामना करना पड़ा है।

कम नहीं हो रही कांग्रेस की मुश्किलें

मुश्किल दौर से गुजर रही कांग्रेस की हार का सिलिसला थमने का नाम नहीं ले रहा है। अब उसे पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में निराशा मिली है, हालांकि कुछ जगहों के उपचुनावों में जीत उसको थोड़ा सुकून देने वाली है। देश के मुख्य विपक्षी दल को त्रिपुरा में वाम दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का प्रयोग भी विफल रहा। उसने ऐसा ही प्रयोग वर्ष 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भी किया था, जहां उसका खाता भी नहीं खुल पाया था। पूर्वोत्तर में कांग्रेस को चुनावी सफलता की उम्मीदों को उस समय झटका लगा है, जब कुछ सप्ताह पहले ही कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पूरी हुई और कुछ दिनों पहले उसका 85वां महाधिवेशन आयोजित हुआ था। त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को तीन सीटें मिलीं, जहां वह 13 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। मेघालय में कांग्रेस को सिर्फ पांच सीटें हासिल हुईं, जहां पिछले विधानसभा चुनाव में उसे 21 सीटें मिली थीं। मेघालय विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले उसके अधिकतर विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे। नगालैंड में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली।

कांग्रेस को मिली थोड़ी राहत

कांग्रेस के नजरिये से राहत वाली बात यह रही कि उसने महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में तीन विधानसभा सीटों के उपचुनाव में जीत हासिल की। उसने महाराष्ट्र में कस्बा विधानसभा क्षेत्र में जीत हासिल की, जो भारतीय जनता पार्टी का अभेद किला माना जाता था। इसी तरह उसने पश्चिम बंगाल में सागरदिघी विधानसभा क्षेत्र में तृणमूल कांग्रेस को मात दी। इन चुनावी नतीजों के बारे में पूछे जाने पर कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि आज के नतीजे उत्साहजनक भी है और निराशाजनक भी। पश्चिम बंगाल के उपचुनाव में हम जीते हैं और राज्य विधानसभा में हमारा पहला विधायक होगा। महाराष्ट्र में 30 साल के बाद आरएसएस भाजपा के गढ़ (कस्बा) में कांग्रेस जीती है। तमिलनाडु में हमें बड़े अंतर से जीत मिली है।

पांच राज्यों में सिमटी कांग्रेस की सत्ता

मौजूदा समय में कांग्रेस की राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में अपने बूते सरकार है तो झारखंड में वह झारखंड मुक्ति मोर्चा के कनिष्ठ सहयोगी के रूप में सत्ता की भागीदार है। तमिलनाडु में भी वह सत्तारूढ़ द्रमुक की कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका में है। बिहार में ‘महागठबंधन’ सरकार का भी वह हिस्सा है। कांग्रेस को लंबे समय बाद पिछले साल दिसंबर में हिमाचल प्रदेश में जीत मिली थी, हालांकि उसी समय गुजरात में उसका प्रदर्शन बहुत निराशाजनक रहा था। पिछले साल पंजाब विधानसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी ने इस महत्वपूर्ण राज्य की सत्ता को गंवा दिया। उसी समय कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनावों में भी निराशा हाथ लगी थी।

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