अनुपम है श्रीरामचरितमानस का काव्य वैभव

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दैन्यमूर्ति तुलसीदास का परम स्वानुभव
गोस्वामी तुलसीदास जयंती पर विशेष


जयपुर.
श्रेष्ठ कवियों की मार्मिक रचनाएं पाठकों के हृदय को नि:सन्देह प्रभावित करतीे हैं। कविवरेण्य तुलसी कीे रचना श्रीरामचरितमानस ऐसी ही अद्भुत कृति है जिसका स्थायी प्रभाव पाठक एवं श्रोता के हृदय को स्पर्श ही नहीं करता है अपितु उसके मनोभावों को चमत्कारिक रूप से परिवर्तित करता है। महनीय ग्रन्थ मानस के इस अद्भुत प्रभाव को अपनी कुदृष्टि से कुप्रभाव समझना बुद्धिमत्ता का द्योतक नहीं है। क्या श्रीराम के द्वारा अपने त्याग, तप, ज्ञान, विज्ञान एवं सदाचार से समाज का लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण करने वाले ब्राह्मणों को दान देने से भारतीयों में भीरुता या पराजयवादिता का जन्म होता है।
श्रीराम वीर पुरुष हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन समानता में सत्य, सदाचार एवं सद्गुणों के उत्तम आदर्शों की संस्थापना के लिए कृत अदम्य सङ्घर्ष तथा साहस का स्थायी अप्रतिम आलोक है। गुरुजनों की वाणी को साकार करने के लिए अयोध्या के महान् साम्राज्य का तृणवत् परित्याग, राजत्व का अहंकार त्याग करके तुच्छ एवं निराश्रित प्राणियों को हृदय से अङ्गीकार करना, मानवता के घातक शत्रु तथा दानवता के प्रतिमानरूप रावण का, नारी के शील की प्रतिमूर्ति वैदेही सीता के रक्षणार्थ संहार करना एवं उदात्त मानव मूल्यों को प्रतिष्ठित करना आदि भगवान् राम के जीवन के वे आदर्श हैं जिनको व्यवहार में लाकर समग्र मानवता चिरकाल तक जीवित रह सकती है। जिस प्रकार उनका प्रत्येक आचरण भारतीय संस्कृति के आदर्शों का संरक्षक है। उसी प्रकार उनका तीर्थों में स्नानदानादि भारतीय संस्कृति के विधानों का सम्पोषक है। इससे साधुओं, भिक्षुकों तथा आलसियों की भीड़ नहीं बढ़ती है। इससे तो सम्पूर्ण भारत की एकता तथा अखण्डता अतीव बलशाली होती है एवं समाज में जो दीन, दु:खी, दरिद्र, पीडि़त और शोषित हैं उनके लिए कुछ करने की सत्प्रेरणा प्राप्त होती है।
विश्वसाहित्य में मानससदृश एक भी शुचिता, मर्यादा एवम् सच्चारित्य से सम्पन्न महाकाव्य नहीं हैं जिसका पठन-पाठन परिवार या समाज के सभी सदस्य एक साथ बैठकर परिपूर्ण कर सकें। सहस्त्र एवम् लक्ष नहीं कोटि-कोटि की संख्या में केवल सवर्ण नहीं, असवर्ण, वर्णसङ्कर तथा विदेशी एवम् विधर्मी भी मानस के अध्ययन से नैतिकता, सच्चारित्र्य, शुचिता, मर्यादा पालन, सर्वविध समन्वय, आत्मकल्याण एवम् विश्वकल्याण की विशुद्ध भावनाओं से परिपूर्ण होकर नैराश्योपेत जीवन में आत्मविश्वास रूपी आलोक को रामभक्ति की मुक्तिदायिनी गङ्गा में सदा सम्प्राप्त करते हैं।
आज के अशान्त-श्रान्त जीवन में अतृप्त असंख्य आकाङ्क्षाओं की धारा को परिवर्तित करके उन्हें श्रीराम के स्मरण, गुणगान एवम् गुण श्रवण की ओर उन्मुख करके तथा उनके सत्य, त्याग, मर्यादा, सद्व्यवहार और प्राणिमात्र के प्रति सहज स्नेह को आंशिक रूप से भी अंङ्गीकार करके परमशान्ति को अधिगत किया जा सकता है। मानस का यह महनीय सन्देश केवल कल्पनालोक का एक आकाश कुसुम नहीं अपितु स्वयं भक्तकवि के द्वारा अनुभूत हैं तथा निरन्तर भावुक भक्तजनों के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव किया जा रहा है।

मानसकार का स्वानुभव श्रवणीय है …
सुन्दर सुजान कृपानिधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्वानप्रद सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूॅ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूॅ।।
मानस उत्तरकाण्ड 126/छन्द 3

उपर्युक्त कथन का आशय यह है कि सर्वत्र सम्मानितों, धनिकों, गुणवानों, विद्वानों एवम् ज्ञानियों पर स्वार्थवश कृपा करने वाले प्रभु तो अनेक हैं किन्तु दीन-हीन अनाथ पर बिना किसी कामना के सर्वथा निष्काम हित करने वाले तथा मोक्ष प्रदान करने वाले एकमात्र कृपानिधान श्रीराम हैं जिनकी लेशमात्र अत्यधिक स्वल्प कृपा से तुलसीदास ने भी परमशान्ति प्राप्त की। यहॉ पर प्रयुक्त ‘परम बिश्रामुु’ शब्द स्पष्ट रूप से यह सूचित करता है कि मानस की सम्पन्नता के साथ ही गोस्वामी तुलसीदासजी को पूर्णरूप से परमशान्ति उपलब्ध हो गयी थी और उनके मन में किसी प्रकार की अशान्ति चंचलता या मनोविकृति नहीं थी।

जय श्रीमन्नारायण सा

पंडित रतन शास्त्री (दादिया वाले), किशनगढ़, अजमेर ।
-91-9414839743
-लेखक शिक्षक पद से सेवानिवृत्त है और कर्मकांड के वरिष्ठ पंडित है। वर्तमान में किशनगढ़ में निवासरत है।

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