अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विदेशी अवधारणा

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भारतीय संविधान में नहीं स्पष्ट परिभाषा
भाजपा नेता डॉ. महेश चंद शर्मा ने कहा


जयपुर.
भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की स्पष्ट परिभाषा नहीं है। हमारा समाज जातियों में अवश्य रहा लेकिन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के रूप में नहीं हुआ। यह एक साम्राज्यवादी अवधारणा है। यह बात वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ. महेश चंद शर्मा ने जवाहर लाल नेहरु मार्ग स्थित डॉ राधाकृष्णन लाइब्रेरी में संविधान सभा, संविधान एवं अल्पसंख्यक एक विमर्श विषय को संबोधित करते हुए कही। उन्होंने कहा कि उन्होंने कहा कि 1909 के सुधारों से यह बात सामने आई और 1935 के एक्ट में शामिल हुई उसके बाद से ही यह संविधान में शामिल हुई। उसमें भी केवल भाषाई और रिलीजन अल्पसंख्यक की बात है। इस संबंध में भारतीय संविधान सभा की बहस आंख खोलने वाली है। लेकिन बाद में राज्य और राजनीति ने अल्पसंख्यक बहुसंख्यक का भेद बढ़ा दिया। पूर्व राज्यसभा सांसद एवं पंडित दीनदयाल एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास संस्थान, नई दिल्ली के अध्यक्ष डॉ. शर्मा ने कहा कि वोट बैंक की राजनीति के कारण हम भारत के लोग जो कि संविधान की मूल भावना है उसको भुलाकर अल्पसंख्यकवाद-बहुसंख्यकवाद का माहौल बना दिया गया है। हमारे सविधान पर सहजता से चर्चा किए जाने की आवश्यकता है ताकि समाज में एकता और समरसता की भावना बढ़े। भाजपा नेता शर्मा ने कहा कि देश हित के लिए संविधान सभा की भावना को प्रत्येक नागरिक को जानना चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार रमन नंदा ने कहा कि 1919 में राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस के समय शैक्षिक संस्थाओं में अपने धर्म के हिसाब से शिक्षा देने की मांग की गई थी। उस समय ईसाई समाज की ओर से यह मांग सभी के लिए मांग की गई थी। भारतीय संविधान बनने के बाद अल्पसंख्यकों को दिए गए अधिकार का यह मतलब निकाला गया कि केवल अल्पसंख्यक ही अपने शैक्षिक संस्थान संचालित कर सकते हैं और बहुसंख्यक नहीं। हमारे संविधान और सविधान पर परिष्कृत बहस की आवश्यकता है। ग्रासरूट मीडिया फाउंडेशन की ओर से आयोजित इस संगोष्ठी को प्रोफेसर प्रह्लाद राय ने भी संबोधित किया।

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