
आखर में कवि मुकुट मणिराज ने सुनाए गीत
जयपुर, 6 फरवरी। गांव में बचपन से ही मां के संस्कार और ग्रामीण परिवेश में रहते हुए गीत और कविताएं रचना सीख गया। विशेषकर हाड़ौती के जनजीवन से जुड़े हुए गीतों की परंपराओं और परिवेश को आत्मसात करते हुए ग्रामीण जीवन को अभिव्यक्त किया। यह विचार कोटा के प्रसिद्ध कवि मुकुट मणिराज ने व्यक्त किए। विजय जोशी से संवाद में उन्होंने कहा कि मेरी मां को बहुत से लोकगीत कंठस्थ थे। मां के गीतों को सुर लहरियों के साथ सुनते सुनते ही बचपन से लिखने की आदत पड़ गई। कोटा में 1972 में आने के बाद वरिष्ठ कवियों और साहित्यकारों की रचनाएं सुनने को मिली। उसके बाद स्थानीय अखबारों में भी मेरी रचनाएं छपने लगी। उस समय साहित्य के कार्यक्रम भी अनौपचारिक होते थे और समीक्षा भी होती थी। इससे सभी का मार्गदर्शन भी मिला।
आडंबर से दूर था जीवन
उस समय सामाजिक सांस्कृतिक जीवन भी आडंबर से दूर और मनुष्यता से परिपूर्ण था। यहां तक कि मैंने बारात और दूल्हा दुल्हन को भी पैदल आते देखा है। उस समय के रसिया फाग गीतों को निरंतर सुना। हाड़ौती के प्रसिद्ध गीतकार दुर्गादान सिंह, रघुराज सिंह हाड़ा, गिरधारी लाल मालव और प्रेमजी प्रेम आदि की रचनाओं को भी काफी सुना।
प्रसिद्ध गीत ओळमो
अपने प्रसिद्ध गीत ओळमो के बारे में बताते हुए साहित्यकार मणिराज ने बताया कि यह गीत इतना प्रसिद्ध हुआ कि हर मंच पर सुनाना ही पड़ता है। इस पर पुस्तक भी लिखी है। इस गीत में शुद्ध ग्रामीण संस्कृति और आदर्शवादी जीवन का उजास है। गांव की लडक़ी ससुराल में अपने पीहर को याद करती है। गांव की जिंदगी अभी भी महिलाओं के लिए वैसी ही है केवल वस्तुएं बदली हैं। परिस्थितियां बदल गई हैं। भारतीय पर्व और शादी-ब्याह भी औपचारिक हो गए हैं।
उन्होंने अपने गीत भी सुनाएं इनमें – याद आवे री म्हाने छोटो सो बीर, भावज को चीर, पनघट को नीर, चंबल को तीर – ओ म्हारो पीर सुनतो जावे तो दीजै ओळमो, दौड़े म्हारो रामल्यो, आदि गीतों को सुनाकर श्रोताओं को अभिभूत कर दिया।
आखर की ओर से आज दिवंगत हुई स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर को सादर श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि प्रमोद शर्मा ने कहा कि यह कार्यक्रम उनकी स्मृति को समर्पित है। साथ ही सभी का आभार व्यक्त किया।