
“सम्मुख” में युवा कवियों ने जमाया रंग
जयपुर। ग्रासरूट मीडिया फाउंडेशन द्वारा कलानेरी आर्ट गैलरी के सहयोग से गीत और कविता पाठ संध्या “सम्मुख” का आयोजन किया।
कार्यक्रम के प्रारंभ में ग्रासरूट मीडिया के प्रमोद शर्मा ने बताया कि युवा कवियों और गीतकारों को प्रोत्साहित करने के लिए इस कार्यक्रम की शुरुआत की है। प्रारम्भ में डॉ. शालिनी ने बाबा पागलदास रचित झूलन का पद सुनाया । शनिवार देर शाम तक चले इस आयोजन में गीतकार धनराज दाधीच और युवा कवि मन मीत ने एक से बढ़कर एक रचनाएं सुनकर श्रोताओं को बांधे रखा। धनराज दाधीच ने –
बंटवारे को कर लिया, कुछ ऐसे आसान।
मैंने आंसू रख लिए उनको दी मुस्कान।।
चंदा के सर दर्द की, ज्ञात हुई जब बात।
चंपी करने आ गई ,चुपके-चुपके रात।
तेरी यादें यूं लगे ,जैसे हो लोबान ।
महका महका जा रहा मन का रोज मकान ।।
बज्म सजी आकाश में ,चांद बना उस्ताद ।
पढी रात ने शायरी तारों ने दी दाद
और गांव छोड़ने की व्यथा कहता गीत
ʿगांव, गळी, चौबारा छूट्या, अेक पेट के कारणै।
संगी साथी न्यारा छूट्या, अेक पेट के कारणै॥
बोझ बढ्यो बचपन छूट्यो, घर बार पलक में छोड़ दियो, दो पीसा की खातिर म्हे, शहरां सूं नातो जोड़ लियो। शहरा कै ईं मकड़जाळ नै, म्हे तो समझ नहीं पाया,
घणा-घणा उळझ्यां हां जद भी, बारै आणू म्हे चाया।’
खेल तमाशा सारा छूट्या, अेक पेट के कारणै।
गांव, गळी, चौबारा छूट्या, अेक पेट के कारणै॥
छूट गया सब कैर कुमठिया, काचर बोर मतीरा रे,
छूट गयो मां को खीचड़लो आटै वाली खीरां रे।
अब तो कदै-कदै ही जाणो, होवे म्हां सूं गांव में,
याद घणी आवै मा, बीत्यो,बचपन बीं की छांव में।
मा का शक्करपारा छूटया, अेक पेट के कारणै।
गांव, गळी, चौबारा छूट्या, अेक पेट के कारणै॥
चढ़-चढ़ खाता गूंद खेजड़्यां, को, म्हे खुल्ला घूमता,
दोपारी में बड़ पीपळ का, म्हे टिकटोळ्यां चूमता।
बाजरिया रो मोरण खाता, खेजड़ियां री छांव में,
बिरखा मांय बणाता हिलमिल, कागदिया री नाव म्हे।
अे सब शौक विचारा छूट्या, अेक पेट के कारणै।
गांव, गळी, चौबारा छूट्या, अेक पेट के कारणै॥
सभी को भावुक कर गया। इसी तरह ʿराम की कथा में सबको पद प्रतिष्ठा यश मिला।पर उपेक्षिता रही सदा लखन की उर्मिला’
राम वन को जब चले तो जानकी भी चल पड़ी
उर्मिला बिचारी देखती रही खड़ी-खड़ी
तब लखन ने आ कहा कि “है परीक्षा अब तेरी”
” ध्यान अब तुम ही रखोगी मांओं का प्रिये मेरी”
चल पड़े लखन भी उसको विरह का गरल पिला।
पर उपेक्षित रही सदा लखन की उर्मिला।।
किस तरह दिवस कटे वो रातें किस तरह कटी
कौन जानता है उर्मिला कहां-कहां बंटी
तन का कोयला किया वो बावरी सी हो गई
आंसुओं को पीते पीते वो सुधी भी खो गई
और कभी किसी से भी किया नहीं कोई गिला।
पर उपेक्षित रही सदा लखन की उर्मिला ।।
पंथ वो दिखा गई सबक कई सिखा गई
कौल जो लखन से थे वो कौल भी निभा गई
त्याग सेवा धर्म की बनी वो इक शिला प्रबल
उस महावियोगिनी को समझना कहां सरल
उर्मिला वही समझ सके जो बने उर्मिला।
उर्मिला वही समझ सके जो बने उर्मिला।। को भी श्रोताओं ने काफी सराहा।
कवि मनमीत ने मां के वंदन आधारित कविता से शुरुआत करते हुए कुँवरपाल और जनानी ड्योढी, ऐसा चमत्कार, मेरी ख़ुशबू फैल रही है, मेरा परिचय मैं, पेड़ बना, परदे के पीछे, कोर्ट रूम में इक बच्ची, खुदाई, सदा निष्पक्ष समय आदि रचनाएं सुनाकर वाह वाही बटोरी।
कविता गीत सुनने सुनाने की परंपरा को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू किए कार्यक्रम “सम्मुख” की पहली कड़ी का समापन करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण कल्पित ने आशा जताई कि कवि की कविता सुनने का रूबरू कार्यक्रम सतत चलता रहेगा। इसमें अनेक कवियों और गीतकारों को सुनने का अवसर मिलेगा। अंत में कलानेरी आर्ट गैलरी के विजय शर्मा ने आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर अजन्ता देव, ईश्वर दत्त माथुर, कार्टूनिस्ट अभिषेक तिवारी, अविनाश जोशी, मायामृग, डॉ. राजेश मेठी, नूतन गुप्ता आदि उपस्थित रहे। संचालन प्रदक्षिणा पारीक ने किया।
