
डॉ. सुनिल शर्मा
जयपुर। भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह हम बचपन से सुनते आ रहे हैं और आज तक इस लाइन में कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है। इतना ही नहीं, आजादी के इतने सालों बाद भी उस किसान की हालत में कोई परिवर्तन नजर नही आया है। हां, इतना जरूर हुआ है कि उस किसान के वोट की ताकत से देश में सरकारे बदलती रही हैं, लेकिन देश की हालत और हालात बदलने में खून पसीना बहा रहे उस किसान को ठगने में किसी ने कसर नहीं छोड़ी। जिसको जब मौका मिला, उस धरतीपुत्र को ठगने से बाज नहीं आया। चुनाव के वक्त उस भोले और मेहनतकश किसान को राजनेताओं ने ठगा तो फसल बेचने के दौरान दलालों और कारपोरेट घरानों ने उससे औने-पौने दामों में फसल खरीद ली। रही सही कसर पूरी कर देते हैं बैंक और सूदखोर। इसी का नतीजा रहा कि इस देश में खेती और खेत सिमटते रहे और घटता चला गया देश इकोनॉमी में कृषि का योगदान। वर्ष 1951 में देश की इकोनॉमी में कृषि का योगदान 51 प्रतिशत था, जो वर्ष 2020 में घटकर मात्र 14.8 प्रतिशत रह गया। हालांकि आज भी हमारे देश में 58 प्रतिशत आबादी की आजीविका का साधन कृषि है। फिर भी सरकारों का कृषि की ओर ध्यान नहीं है।
सोचें सरकारें
हर बजट से किसानों को बड़ी उम्मीदें होती हैं, लेकिन किसान हर बार ठगा सा रह जाता है। एमएसपी चाहे खाते में आए या किसान को नकद दिया जाए, इससे खेती और किसान पर क्या असर पडऩे वाला है। यह समझ से परे है। सरकारों को चाहिए कि खेती और किसान को बचाने के लिए लोक लुभावन, नहीं दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ धरातल पर प्रयास किए जाने चाहिए, जिससे कि हम कम से कम खेती में वापस 1950 वाली स्थिति की उम्मीद तो कर सकें।