
अतुलनीय, चतुर और संपूर्ण गुणों के निधान
भक्ति और शक्ति के धाम है बजरंग बली
जयपुर.
भगवान श्रीराम के भक्तों के लिए भगवान हनुमानजी का जीवन आदर्श है। हनुमान जी भगवान श्रीराम का हर कार्य पूर्ण बुद्धिमता और शक्ति के साथ करते है। हम सभी हनुमानजी से प्रेरणा लेकर चतुरता से कार्य करें तो अपने जीवन में देश और समाज के लिए बड़ी उपलब्धियां अर्जित कर सकते है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में उन्हें विद्यावान और अति चातुर कहा है। इसलिए रामभक्तों को चतुर भी होना होगा।
बजरंग बली ने अपनी भक्ति, शक्ति और चतुरता से लंका का विध्वंस किया है वह सभी रामभक्तों के लिए प्रेरणास्पद है।
।।श्रीहरि: ।।
।। श्रीमते रामानुजाय नम:। ।
राम दूत अतुलित बलधामा। अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।।
हनुमान चालीसा की उपर्युक्त चौपाई का भावार्थ एवं गूढ़ार्थ यहां प्रस्तुत है-
अर्थ-हे पवनसुत अंजनीनन्दन! श्रीरामदूत! आपके समान दूसरा कोई बलवान नहीं है।
गूढ़ार्थ-पवनपुत्र श्री हनुमानजी के लिये अनेक भक्तों और कवियों ने अनेक प्रकार के विशेषणों का प्रयोग किया है। उन्हें अतुलित बलधाम, सुमेरु के समान द्युतिमान् शरीरवाले, राक्षसों के समूह को अग्नि के समान भस्मीभूत कर डालने वाले, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के निधान, वानरों के अधीश्वर और श्रीराम का श्रेष्ठ दूत कहा गया है। इतना ही नहीं उन्हें मन के समान अति तीव्र गतिवाले पवन के समान वेग से चलने वाले अत्यन्त जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी वायु के पुत्र, वानरों की सेना के नायक और श्रीराम का दूत भी कहा गया है।
यह होते है दूत के लक्ष्ण
भारतीय नीतिग्रन्थों में दूत के लक्षण बताते हुए कहा गया है-
मेधावी वाक्पटु प्राज्ञ परचित्तोपलक्षक।
धीरो यथोक्तवादी च एष दूतो विधीयते।।
गुणी भक्तो शुचिर्दक्ष प्रगल्भोव्यसनी क्षमी।
ब्राह्मण परमर्मज्ञो दूत स्यात् प्रतिभानवान्।।
साकारो निस्पृहो वाग्मी नानाशास्त्रविचक्षण ।
परचित्तावगन्ता च राज्ञो दूत स इष्यते।।
जो व्यक्ति दूत का कार्य करने के लिये भेजा जाय वह मेधावी, बुद्धिमान्, प्रतिभावान् और विलक्षण स्मरण शक्ति वाला, वाक्पटु (समय के अनुसार उचित बात कहने में चतुर) प्राज्ञ (किसी भी बात को झट समझने वाला) धीर (धैर्यशाली) और जैसा कहा हो वैसा ही जाकर कहने वाला होना चाहिए जो गुणी (अनेक गुणों का भण्डार), आवश्यकता पडऩे पर समुचित व्यवहार कर सकने वाला, अपने स्वामी का भक्त, पवित्र (किसी भी प्रकार के प्रलोभन से विचलित नहीं होने वाला), दक्ष (आवश्यकतानुसार व्यवहार करने में चतुर), प्रगल्भ (बातचीत करने में कुशल), अव्यसनी (जिसमें किसी प्रकार का व्यसन या दुर्गुण न हो), सहिष्णु, (ब्राह्मण पवित्र आचरण वाला), दूसरे के मन की या भेद की बात झट समझ सकने वाला और प्रतिभावान् (देश, काल, परिस्थिति के अनुसार व्यवहार कर सकने की बुद्धिवाला हो)।
राजा का दूत देखने में सुन्दर, निर्लोभ, वार्तालाप में कुशल, अनेक शास्त्रों का पण्डित और दूसरे की बात झट समझ सकने वाला होना चाहिये। पवनपुत्र हनुमानजी तो भगवान् श्रीराम के दूत थे उनमें ये सभी गुण प्रचुर मात्रा में विद्यमान् थे।
दूत का कार्य यह है कि जो काम उसे सौंपा जाय उसे वह सावधानी से निरालस होकर करे। जब समुद्र तट से उछलकर हनुमानजी लंका की ओर जा रहे थे उस समय मैनाक पर्वत ने उनसे कहा कि तनिक विश्राम कर लीजिये। किन्तु श्री हनुमानजी ने कहा नहीं ‘राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहाँ विश्राम’ (रामचरितमानस 5/1)।
हमें भी प्रभु भक्त बनने के लिये हनुमानजी का आदर्श सन्मुख रखते हुए प्रभु कार्य के लिये कटिबद्ध होना चाहिए। रामदूत के गुणों में एक गुण है प्रगल्भ अर्थात् जो उचित और आवश्यक बात को कहीं भी किसी भी परिस्थिति में निस्संकोच भाव से कहने में पूर्ण समर्थ हो ।
अहंकार और क्रोध की प्रतिमूर्ति दशानन रत्नजडि़त स्वर्ण सिंहासन पर बैठा हुआ था। सभा भरी हुई थी और शतयोजन सागर को पार करके सीता माता से भेंटकर अशोक वाटिका को उजाड़ कर, राजपुत्र अक्षकुमार को यमलोक भेजकर, मेघनाथ द्वारा ब्रह्मास्त्र बन्दी हनुमानजी उसके सामने खड़े थे। सभा मे सन्नाटा छाया हुआ था एवं समस्त सभा आश्चर्यचकित दृष्टि से उन्हें घूर रही थी। ऐसी विषम परिस्थिति में भी उस अद्वितीय प्रतिभाशाली राजदूत के द्वारा दिये गये भाषण के एक एक शब्द में उनके उत्कृष्ट प्रागल्भ्य का दर्शन होता है। उन्होंने कहा हे राक्षसराज! मैं महात्मा सुग्रीव का सचिव और प्रभु श्रीरामचंद्र का दास हनुमान हूँ। मैं अपने स्वामी की आज्ञा से देवी जानकीजी का अन्वेषण करता हुआ आपकी लंका मे आ पहुँचा हूँ। मैने स्वयं आपके यहाँ अशोक वाटिका में माता सीता के दर्शन किये हैं और उनसे वार्तालाप भी किया है।
हे दशानन! आप तो महामति हैं नीतिज्ञ और धर्मज्ञ हैं अर्थ, काम के मर्म को भलीभाँति जानते हैं फिर भी परायी स्त्री का इस प्रकार अपहरण करके बलात् घर में रखने की शठता, धूर्ततापूर्ण और महदशोभनीय कुकर्म आपसे कैसे हो गया किन्तु अभी भी अवसर है उस त्रुटि को सुधारने का। आप मेरा धर्मानुकूल अनुरोध मानकर तत्काल रघुकुलकुलाङ्गना देवी जानकीजी को सम्मान सहित श्रीरामजी के पास भेज दें। इसी में आपकी भलाई है अन्यथा आपका जीवित रहना कठिन है।
इस प्रकार रामदूत भगवान् के दूत को निर्भय, मेधावी, दक्ष, प्राज्ञ, धीर, प्रगल्भ इत्यादि गुणोंसे युक्त होना चाहिए। तथा दूत को केवल गुणवान् होना ही पर्याप्त नहीं उसे बलवान् भी होना चाहिए।
जरूरी है बलवान होना
तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनुमानजी का बल कैसा है ‘अतुलित बलधामा’। हनुमानजी का बल अतुलित है यानी जो तोला नहीं जा सकता जिसकी कोई तुलना नहीें। हम जब कोई असामान्य वस्तु या व्यक्ति का वर्णन करते हैं तो उस वस्तु या व्यक्ति को किसी न किसी की उपमा दी जाती है। परन्तु हनुमानजी का बल तो अपार हैं ऐसा तुलसीदासजी वर्णन करते हैं। संस्कृत में कहा गया है।
गगनं गगनाकारं सागरं सागरोपमम्।
राम रावणयोर्युद्धं राम रावणयोरिव।।
गगन को गगन की उपमा दी जाती हैए सागर को सागर की ही उपमा दी जाती है। वैसे ही हनुमानजी के बल के लिए तुलसीदासजी कहते हैं कि हनुमानजी का बल अपार है ‘अतुलित बलधामा’ उसकी कोई तुलना नहीें की जा सकती। तुलसीदासजी ने सुन्दरकाण्ड में भी हनुमानजी की वन्दना करते हुए लिखा है ‘अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं’ हनुमानजी का बल अतुलित है उनके बल की किसी से तुलना नहीं की जा सकती है।
हमारे यहाँ हाथी का बल सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। योगदर्शनकार ने शक्ति का जो माप कहा है वह बलेषु हस्ति बलादिनि ऐसा कहा है। भीम का बल कितना था तो नवनागसहस्त्रबल: नाग-हाथी ऐसा लिखा है। भीम में नौ हजार हाथियों का बल था। उस समय बल का माप हाथी था। अब हाथी बल चला गया है और अश्वशक्ति ने उसका स्थान लिया है। हम और कितना गिरते हैं यह देखना है। जिस देश में हाथी ही नहीं है उस देश के लोग तो अश्वबल ही कहेंगे न। वे आंग्लशासक अश्वबल कहने लगे इसलिए हम भी उनका अन्धानुकरण करके वैसा कहने लगे। तुलसीदास जी ने भगवान् राम की बाल लीला का वर्णन करते हुए एक भजन में लिखा है कि भगवान् राम का मुखकमल कैसा है तो लिखा है .
तुलसीदास अति आनन्द निरख के मुखारविन्द।
रघुपति की छबि समान रघुबर छबि बनियाँ।।
ठुमुकि चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियाँ।।
तुलसीदास जी कहते हैं भगवान राम का मुखकमल रामजी के जैसा ही है उसकी कोई तुलना नहीं उसी प्रकार यहाँ तुलसीदासजी हनुमानजी के बल के लिए लिखते हैं कि हनुमानजी का बल अपार है ‘रामदूत अतुलित बलधामा’ उसकी कोई तुलना नहीं कर सकते।
युद्धकौशल और शास्त्रविद्या में निपुण
तुलसीदासजी ने लिखा है ‘रामदूत अतुलित बलधामा’ अर्थात् युद्ध कौशल और शास्त्रविद्या दोनों के प्रयोग में राजदूत को दक्ष और विवेकयुक्त होना चाहिये अर्थात् क्षत्रियत्व और ब्राह्मणत्व का उसमें सम्यक् समन्वय होना चाहिये। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है लंका दहन। लंका दहन एक वानर की मर्कटलीला नहीं थी अपितु वह एक राजनीति निपुण व्यक्ति का पूर्ण विचार से किया हुआ कृत्य था। लंका दहन में पूर्ण राजनीति थी। लंका दहन करके हनुमानजी ने युद्ध का आधा काम पूरा कर दिया आधी लड़ाई तो उसी समय हनुमानजी ने जीत ली थी। लंका दहन करके उन्होने लंका की राक्षस प्रजा का आत्मप्रत्यय समाप्त कर डाला था। प्रजा का अपने ऊपर तथा अपने सामथ्र्य पर ही विश्वास नहीं रहा। यह कार्य हनुमानजी ने किया है। इस कार्य का प्रभाव इतना शक्तिशाली हुआ कि प्रजा का गया हुआ चैतन्य अन्त तक वापस नहीं आया। सब घबराये हुए थे सब अज्ञातभय से भयग्रस्त हो गये थे। जिस प्रकार क्रिकेट में एक आउट हुआ इसलिए मैं भी जानेवाला हूँ यह वृत्ति आई मैं खेलूँगा मै बाऊंड्री मारुँगा। इस वृत्ति का नाश हुआ ही समझो। आत्मप्रत्यय जाने पर पराजय ही वरण करती है। इस प्रकार राक्षस प्रजा मानसिक दृष्टि से पराजित हो चुकी थी। हमने विजय के लिए ही जन्म लिया है इतना आत्मविश्वास होगा तो निर्बल व्यक्ति भी विजय प्राप्त कर लेगा। हनुमानजी की यह चतुरता राजनीति और मानस शास्त्र का गहन अभ्यास दर्शाती है। इस प्रकार हनुमानजी के इन गुणों का चिन्तन कर हमें भी अपने जीवन में उन गुणों को लाने का प्रयत्न करना चाहिए तभी हम सच्चे अर्थ में हनुमानजी के भक्त बन सकेंगे। इस प्रकार राजदूत के आवश्यक सभी श्रेष्ठ गुणों से हनुमानजी का व्यक्तित्व समन्वित है। जैसे श्रेष्ठ नीतिमान् राजा श्रीराम है वैसे ही श्रेष्ठ नीतिज्ञ रामदूत श्री हनुमान हैं।
तपस्या से प्रकट हुए अंजनीपुत्र
तुलसीदासजी आगे लिखते हैं ‘अंजनीपुत्र पवनसुत नामा’। भारतीय धर्मशास्त्रों में श्रीहनुमानजी को वातात्मज अर्थात् वायुपुत्र बताया गया है। हनुमानजी की माता अञ्जनी और पिता केसरी थे। अञ्जनी पूर्व जन्म मे पुंजिकस्थला नाम की श्रेष्ठ अप्सरा थी। ऋषि के शापवश वानरी हुई तथापि उनका अप्रतिम लावण्य वरदान के कारण था। स्कन्द एवं भविष्योत्तर पुराणों में भी कथा आती है कि केसरी की पत्नी अञ्जनी अनपत्य दुख से दुखी होकर मतङ्गऋषि के पास जाकर करुण क्रन्दन करती हुई कहने लगी मुने ! मेरे पुत्र नहीं है। आप कृपया पुत्र प्राप्ति का कोई उपाय बतलाइये! तब मतङ्ग ऋषि ने कहा पम्पा सरोवर से पूर्व दिशा में पचास योजन पर नरसिम्हाश्रम है। उसकी दक्षिण दिशा में नारायण गिरि पर स्वामितीर्थ है। उससे एक कोश उत्तर में आकाशगंगा तीर्थ है। वहाँं जाकर उसमें स्नान करके द्वादश वर्ष तक तप करने से तुम्हारे गुणवान् पुत्र उत्पन्न होगा। मतङ्गऋषि के ऐसा कहने पर वह नारायणाद्रि पर गयी स्वामीपुष्करिणी में स्नान किया और अश्वत्थ की प्रदक्षिणा एवं वराह भगवानको प्रणाम करके आकाश गंगातीर्थ में रहनेवाले मुनियों एवं अपने पति की आज्ञा लेकर उपवास करती हुई वह भोग त्यागकर तप करने लगी। इस प्रकार तप करते हुए पूरे बारह वर्ष बीत गये तब वायुदेव ने प्रसन्न होकर उसे पुत्र होने का वरदान दिया। परिणाम स्वरूप अञ्जनी ने एक उत्तम पुत्ररत्न को जन्म दिया जिसका नाम मुनियों ने हनुमान रखा। हनुमानजी की जन्म कथाएँ पुराणों में विभिन्न प्रकार से मिलती है। हमें तो भक्तिपूर्वक उनकी आराधना करनी चाहिये। वायुदेव की कृपासे अञ्जनी माता को पुत्ररत्न प्राप्त हुआ इसलिए उन्हे वायुपुत्र या पवनसुत भी कहा जाता है।
ओम् आञ्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि तन्नो हनुमत् प्रचोदयात् ।
जय श्री राम
जय हनुमान
पंडित रतन शास्त्री ( दादिया वाले )
91-9414839743
लेखक राजस्थान स्थित अजमेर जिले के किशनगढ़ में निवास करते है। संस्कृत के शिक्षक रहे है और कर्मकांड एवं ज्योतिष के आचार्य है।
