मुनि पूज्य सागर की डायरी से
भीलूड़ा.

अंतर्मुखी की मौन साधना का 13 वां दिन
मंगलवार, 17 अगस्त 2021 भीलूड़ा
संतान को शुभकर्म की प्रेरणा दें
मुनि पूज्य सागर की डायरी से
आज चिंतन में चिन्ता थी। पिता अपनी संतान को धन, वैभव, जमीन आदि देना अपना कर्तव्य मानता है। यही वर्तमान में चल भी रहा है। हम सब यह समझ कर देते है कि संतान को सुख शांति और समृद्धि मिलेगी। यही जीवन का सबसे बड़ा भ्रम है। राम और रावण के जीवन पर नजर डालने से यह भ्रम टूट जाएगा। रावण के पास धन, वैभव, जमीन, रिद्धि सब कुछ था पर जीवन में उसे शांति,सुख और समृद्धि नहीं मिली। जो था वह भी चला गया यहां तक कि परिवार का भी नाश हो गया।
राम जब जंगल के लिए घर से निकले तो उनके पास कुछ नहीं था पर धीरे. धीरे उनका वैभव, शक्ति, धन बढ़ता गया। यह सब इतना बढ़ा कि रावण जैसे शक्तिशाली योद्धा पर भी उन्होंने विजय प्राप्त कर ली। यह अब कैसे हुआ। जिसका था वह भी चला गया और जिसके पास कुछ नहीं था उसका सब कुछ हो गया। यह सब शुभ-अशुभ कर्म से हुआ। राम और रावण को जीवन से समझना होगा कि पिता संतान को धन आदि के बजाए शुभ कर्म करने की प्रेरणा दे उन्हें संतों के पास, तीर्थो पर ले जाए। समय-समय पर धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन करे तभी वह अपनी संतान को शुभकर्म दे सकता है।
शरीर का सही उपयोग आत्मसाधना से ही
अंतर्मुखी की मौन साधना का 14वां दिन
बुधवार, 18 अगस्त 2021 भीलूड़ा
मुनि पूज्य सागर की डायरी से
मैं निर्मल हूं मैं कर्ममल रहित हूं मैं सिद्ध हूं और मैं ज्ञाता हूं। यह भावनाएं जीवन में शुभक्रिया के साथ हों तो आचरण और विचारों में स्वत: ही परिवर्तन आ जाता है। इन्हीं आचरण और विचारों से व्यक्ति की पहचान बनती है। शरीर एक माध्यम मात्र रह जाता है। ऐसा व्यक्ति बिना बोले ही सब कुछ बोल जाता है और उसकी बात भी सब लोग आसानी से समझ लेते हैं। मेरा यह मानना है कि शरीर अचेतन है लेकिन शरीर के साथ जो आत्मा है उसमें चेतना व्याप्त है। शरीर का अस्तित्व आत्मा से और आत्मा का अस्तित्व शरीर से है। शरीर का सही उपयोग आत्मसाधना से ही है भोग विलासता से नहीं। जो मान-सम्मान शरीर और आत्मा के पवित्रता से मिलता है वह सदैव सुख देता है और इंसान की इंसानियत को बरकरार रखता है।
शास्त्रों में भी कहा गया है कि आत्मसाधना उतनी ही करो जितनी शरीर में शक्ति हो लेकिन साधना करनी ही है। बिना साधना के सुख की कल्पना तो की जा सकती है लेकिन वह कल्पना साकार नहीं होती। मैंने यह भी एहसास किया है कि साधना करने से आत्मा कर्ममल से मुक्त धूल हो जाती है और भोग विलासिता से आत्मा कर्ममल से मलिन हो जाती है। शरीर की वजह से आत्मा से बंधे कर्म आत्मा को परमात्मा बनने नहीं देते हैं। संसार के सभी प्राणी शरीर और आत्मा के असमंजस में हैं कि किसका कहां और कितना उपयोग किया जाए। सभी प्राणियों में मैं भी शामिल हूं और इसी असमंजस को समझे के लिए आत्मसाधना के मार्ग पर चलना शुरू किया है। इसके बाद मैं यह एहसास भी कर रहा हूं कि साधना के मार्ग पर चलने वाला ही इन दोनों के बीच के असमंजस को समझकर अपने अस्तित्व को समझ सकता है। लेकिन हां साधना के मार्ग पर चलते-चलते दोनों में से एक को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दोनों का संतुलन भी बनाए रखना पड़ता है।
