सभी को समझना ही चाहिए शक्ति रहस्य

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नवरात्र पर विशेष


मदनगंज-किशनगढ़.
वर्तमान में नवरात्र चल रहा है। नवरात्र में शक्ति रहस्य को समझना बहुत जरूरी है। यह हमारी धार्मिक गूढ़ सम्पदा है जो हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए जरूरी है।

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे

वाङ्गमाया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः।

  1. ऐं. वाणी अर्थात् अंतरिक्ष में भ्रमणशील सम्पदा. किसी भी घटना, दुर्घटना या किसी स्थिति या स्थान या किसी की उपस्थिति को शब्दमय वाणी से जान लेना या पूर्वानुमान लगा लेना। …उच्चारण से निकलने वाली ध्वनि का आघात मात्र उन तरंगों पर होता है जो उसकी प्रजाति के अर्थात् ध्वनि संयुक्त हैं।
  2. ह्रीं . माया जो अंतरिक्ष से नीचे तथा धरती की सतह से ऊपर विराजमान है अर्थात् पत्नी, बच्चे, भाई-बहन और सगे-सम्बन्धी आदि यह दिखाई देने वाली सम्पदा पर आघात करता है। ध्यान रहे इस बीज में रुई अर्थात् दृष्टि इस तथ्य की और इंगित कर रहा है कि दिखाई देने वाली प्रकट सम्पदा।
  3. क्लीं-(क)..जल सूचक शब्द अर्थात् धरती से नीचे की सम्पदा..हीरा, सोना, जवाहरात, मूँगा, खनिज माणक आदि।
  4. च- इसको स्पष्ट करने से पूर्व यह बताना चाहूँगा कि मिश्रित या अवलम्बित स्वरों को छोड़ दिया जाय तो शुद्ध स्वर मात्र 5-अ, इ, उ, ए और ओ ही हैं जो क्रमशरू कुचुटुतुपु ..कु अर्थात् कवर्ग..क, ख, ग, घ और ङ्, चु- अर्थात् चवर्ग.च, छ, ज, झ और ञ इसी प्रकार टुतुपु आदि के साथ स्वाभाविक रूप से सम्बद्ध हैं किन्तु तात्कालिक स्थिति के कारण अन्य मात्राओं स्वरों से संयुक्त होकर अपना स्वरूप.भाव आदि बदल देते हैं जैसे गुरु-बुध स्वाभाविक मित्र होने के बावजूद भी प´्चधा मैत्री के कारण परस्पर शत्रु बन जाते हैं।
    अब मुख्य विषय पर आते हैं च प्रथम स्वर अ का अनुयायी है नीरा नाड़ी पर ध्यान केंद्रित कर और च का उच्चारण कर इस ध्वनि का अनुभव सहज ही किया जा सकता है। इस प्रकार माया अर्थात् अंतरिक्ष की सम्पदा को आवृत्त घेरकर रखने वाला च क्योंकि इसमें दीर्घ स्वरुप चा है।
  5. मुं-दो स्वरों से युक्त-शुद्ध या मूल स्वर उ और अनुस्वार ँ म सूर्य बोधक है। शुक्ला नाड़ी के अवलम्बन पर उच्चारित मुं रश्मियों को नीचे पतित होने ही नहीं देता। ओष्ठ एवं नासिका का उच्चारित वक्र तरंगित प्रवाह उसे अधर में लंबित रखता है। ह्रीं और ऐं दोनों का संयोजन सूत्र है क्योंकि उ का द्वार दक्षिण कान है।
  6. डा- यह ग्रहणी नाड़ी से उत्पन्न होने वाला ट से तीसरा व्यञ्जन है। इसके उच्चारण से जो तरंग उत्पन्न होती है वह कठोर एवं आक्रोश से भरी होती है। दीर्घ होने के कारण इसकी तीव्रता और भी बढ़ जाती है जिस तरह बारूद में लिपटे लोहे के छोटे कण स्वयं वेगवान नहीं होते किन्तु बारूद के द्वारा उन्हें गति प्राप्त होती है उसी प्रकार दक्षिण कर्ण आधारित उकार, मकार अर्थात् रश्मियों को आगे धकेलता है तथा-
  7. यै-यह य वायु बोधक है अ और ई के संयोग से यै बना है अर्थात् वायु रूप में अंतरिक्ष एवं भू सम्पदा को बायें कान ..वामकर्ण को देता हैण् दीर्घ रूप ग्रहण नहीं कर सकता। अर्थात् ग्राहक नहीं बन सकता। क्योंकि यह आक्रोश भरे कठोर नाद से सुरक्षित एवं संरक्षित है।
  8. वि-अंतिम अन्तःस्थ वर्ण जो तृक्षा नाड़ी का उपादान है ह्रस्व इकार से युक्त है भूमि के नीचे और-
  9. च्चौ. और आ तथा ई मिश्रित 6 ठा व्यञ्जन जैसा कि ऊपर च में बताया गया है। अंतरिक्ष उपादानों को बलपूर्वक कर्षित करता है।
    ……… इसीलिये इसे मन्त्र में महादानन्ददायक कहा गया है अर्थात् मात्र इसे आतंरिक ज्ञान या स्फुरण ही नहीं बल्कि भौतिक जगत का भी सुख-आनंद भी प्राप्त होता है। इसके गूढ़ रहस्य के कारण ही वेद में कहा गया है कि-
    यस्यारू स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया। यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता। यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या। यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा। एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका। एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका। अत एव उच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति।
    .इस नवार्ण की महिमा में यदि त्रिदेव भी मूर्च्छित हैं तो शेष सांसारिक जीवों का क्या कहना।

-पंडित रतन शास्त्री (दादिया वाले)

-91-9414839743

लेखक संस्कृत के वरिष्ठ शिक्षक रहे है और कर्मकांड के आचार्य है। वर्तमान में अजमेर जिले के किशनगढ़ में निवासरत है।

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