परिवार का मंगल करती है वधू

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।।श्रीहरिः ।।
।।श्रीमते रामानुजाय नमः ।।

(करवा चौथ पर विशेष)

मदनगंज किशनगढ़. पत्नी (वधू) घर के लोगों की आयु कैसे बढ़ाये –

सुमङ्गली प्रतरणी गृहाणां सुशेवा पत्ये श्वसुराय शंभूः। स्योना श्वश्र्वै प्र गृहान्विशेमान्॥
– अथर्ववेद. १४/२/२६

अन्वय –
गृहाणां सुमङ्गली प्रतरणी, पत्ये सुशेवा, श्वसुराय शंभू, श्वश्र्वै स्योना, इमान् गृहान् प्रविश

शब्दार्थ –
गृहाणां = घर के लोगों की
सुमङ्गली = कल्याणकारिणी
प्रतरणी = दुःखों से तारने वाली
पत्ये = पति के लिए
सुशेवा = अच्छी सेवा करने वाली
श्वसुराय = ससुर के लिए
शम्भू = शान्तिदायक और कल्याणदात्री हो,
श्वश्र्वै = सास के लिये
स्योना = सुख देने वाली होकर
इमान् = इन
गृहान् = घरों में, गृहस्थ में
प्रविश = प्रवेश कर,

भावार्थ:- हे देवी नववधू! तू पत्नी बनकर गृहस्थ में प्रवेश करने से पहले इन गुणों को धारण कर, तू सबका मंगल करने वाली, सबको दुःखों से तराने वाली, पति की अच्छी सेवा करने वाली, श्वसुर को शान्ति प्रदान करने वाली, सास को सुख देने वाली, सबका हित करने वाली होकर गृहस्थ में प्रवेश कर।

मन्त्र की मुख्य बातें –
१) पत्नी (वधू) पारिवारिक जनों को कल्याण करने वाली हो।
२) पत्नी (वधू) घर के लोगों को दुःख से तराने वाली हो।
३) पति की सेवा और सुश्रुषा करके उसे सदा प्रसन्न रखने वाली हो
४) श्वसुर के लिए शान्ति और कल्याणदात्री हो।
५) सास के लिए सुख देने वाली हो।
६) इन पांच गुणों से युक्त होकर ही वधुओं को पति-गृह में प्रवेश करना चाहिए।

व्याख्या – घर में प्रवेश करने वाली वधुओं में क्या-क्या गुण और विशेषताएँ होनी चाहिए, वेद ने बहुत थोड़े-से परन्तु अत्यन्त सारगर्भित और मार्मिक शब्दों में वर्णन कर दिया है। वह घर में रहने वाले सभी लोगों को कैसे सुखी रख सकती है। कैसे सबकी आयु बढा सकती है। कैसे सबको दुखो से बचा सकती है। यह चर्चा इस मन्त्र में की गई है।

मन्त्र में पहला शब्द है “सुमंगली”, “मंगलं करोति सर्वेषां प्राणिनां सा सुमंगली, यस्याः प्रयत्नेन सर्वत्र मंगल भवति सा सुमंगली” अर्थात् परिवार में सबका मंगल करने वाली, सबका कल्याण करने वाली, पत्नी (वधू) अपने उत्तम उत्तम आचारण से सबके जीवन में खुशिया भर देती है। उसके रहते घर में अमंगल प्रवेश नहीं कर पाता है। यदि अमंगल आ भी जाये तो वह उसे अपनी बुद्धिमत्ता से दूर कर देती है।

मन्त्र में दूसरा शब्द है “प्रतरणी”, पत्नी को प्रतरणी कहा है अर्थात् “प्रकर्षेण तारयति दुखेभ्यः सा प्रतरणी” सबको दुःखों से, रोगों से, कठिनाइयों से निकालने में सक्षम, वह पत्नी। भला देवी के रहते घरों में रोगों का क्या काम? वह तो सबको उत्तम रसायन और पौष्टिक पदार्थ देती है। सबको उत्तम दिनचर्या में चलाती है। सबकी सहायता करती है। विपत्ति आने पर सबको पूछती है। सबको उत्तम उपाय बताती है। तपस्या पूर्वक सबके दुःखों को बाँटती है। इसलिये वह “प्रतरणी” है।

मन्त्र में अगला पद है “पत्ये सुशेवा” पति के लिये अच्छी सेवा करने वाली। पति की अच्छी सेवा करके पत्नी, पति की आयु वृद्धि में सहायक हो सकती है। इसमें तीन विशेष व्यवहार है। पहली उत्तम सेवा है “वाचिक” अर्थात् मधुर वाणी, पति से मधुर बोले सारे कलह में प्रधान वाणी और सारे उत्तम व्यवहारों में भी प्रधान वाणी है। मधुर वाणी से प्रेम बढ़ता है और इससे गृहस्थी की आयु बढ़ती है। “प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।” भार्या वही उत्तम है जो प्रिय बोलती है। दूसरी उत्तम सेवा है “मानसिक” पति के मन को सुमन बना के रखे। जिस घर में पति और पत्नी एक मन होकर रहते हैं वहाँ सुख वैभव और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है। पति आयुष्मान् होता है। पत्नी वही है जो उत्तम सेवा से सदैव पति के मन को प्रसन्न रखती है। उन्हें तनाव और अशान्ति से दूर रखती है। तीसरी उत्तम सेवा “शरीरिक” है। उत्तम दिनचर्या का पति से पालन करवाये। उन्हें व्यसनों से बचाये, प्राणायाम में प्रवृत्त कराये, रात्रि को समय परा शयन और प्रातःकाल नियमित समय पर जागरण, उत्तम पौष्टिक भोजन, घर की साफ सफाई, सुन्दर व्यवस्थाओं से घर के अन्दर की भीतरी जिम्मेदारियों से पति को निश्चिन्त रखे जिससे वह नौकरी, व्यापार इत्यादि में अधिक प्रयत्न और पुरुषार्थ करे। इन तीन व्यवहारों से पत्नी, पति को आयुष्मान् बनाने में सहायक होती है।

मन्त्र में अगली बात कही है “श्वशुराय शम्भूः” अर्थात् अपने ससुर को शान्ति प्रदान करे। एक पिता अपने घर में सुख शान्ति और कल्याण चाहता है इसलिये वह अपने पुत्र के लिये उत्तम पुत्रवधू ढूंढता है। क्योंकि उत्तम कुल वधू से ही घर में सुख शान्ति सम्भव है। पिता की वृद्धावस्था पुत्रवधू के उत्तम व्यवहारों से ठीक कटती है। और वह प्रसन्न रहता है। उसे घर में मानसिक शान्ति मिलती है। इसलिये इस मन्त्र में पुत्रवधू से निवेदन किया गया है कि हे वधू! तुम अपने श्वसुर को शान्ति प्रदान करने वाली होओ। जिससे उनका वृद्धावस्था शान्ति से व्यतीत हो।

मन्त्र में आगे कहा है “श्वश्र्वै स्योना” श्वश्र्वै यहाँ पर चतुर्थी विभक्ति है अर्थात् सासु के लिये, स्योना अर्थात् सुखम् अपनी सासु माँ के लिये सुख प्रदान करने वाली बनो। वधू का ये कर्त्तव्य है कि अपनी सास को उत्तम व्यवहारों से सुख प्रदान करें। वधू कितना भी करे सास को कम ही लगता है। इसलिये वेद ने इस जिम्मेदारी को ठीक से निर्वहन करने के लिये वधू से कहा है कि जितना हो सके सास को प्रसन्न रखने में लगी रहो। क्योंकि एकदिन तुम भी सास बनोगी। और जो दोगी वही पाओगी। सासु माँओ का भी कर्त्तव्य है कि जैसे वह अपनी बेटी के लिये लचीली और क्षमावान् होती है। वैसे ही पुत्रवधू के लिये भी बने जिससे पुत्रवधू सदैव आपके लिये सुख उत्पन्न करेगी।

मन्त्र में अन्तिम बात कही है “इमान् गृहान् प्रविश” इस घर में प्रवेश कर अर्थात् हे वधू! तू ऐसे उपरोक्त गुणों के साथ अपने ससुराल में, गृहस्थ में प्रवेश कर। गृहस्थाश्रम को धन्य-धन्य कर। कैसा गृहस्थाश्रम धन्य है? एक प्रसिद्ध श्लोक है –

सानन्दं सदनं सुताश्च सुधियः कान्ता प्रियभाषिणी,
सन्मित्रं सधनं स्वयोषिति रतिः चाज्ञापराः सेवकाः।
आतिथ्यं सुरपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं गृहे,
साधोः सङ्गमुपासते हि सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः॥

अर्थ – घर में आनन्द हो, पुत्र बुद्धिमान् हो, पत्नी प्रिय बोलनेवाली हो, अच्छे मित्र हो, धन हो, पति-पत्नी में प्रेम हो, सेवक आज्ञापालक हो, जहाँ अतिथि सत्कार हो, देवपूजन हवन और सन्ध्या करते हों, प्रतिदिन अच्छा भोजन बनता हो, और सत्पुरुषों का संग होता हो – ऐसा गृहस्थाश्रम धन्य है।
जयश्रीमन्नारायण सा

पंडित रतन शास्त्री, किशनगढ़, अजमेर। मोबाइल नंबर 9414839743

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