आचरण और तपस्या से ही बनता है ब्राह्मण

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लोकसेवा में लगे रहना है प्रमुख गुण
राष्ट्र निर्माण और सामाजिक चेतना की महत्ती जिम्मेदारी


मदनगंज-किशनगढ़.
हाल ही में बसपा प्रमुख मायावती ने उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेलन करने की घोषणा की है। कभी समय था जब बसपा और कई अन्य दलों ने ब्राह्मणों के खिलाफ बहुत सी बाते कही थी। अभी भी कई बार ब्राह्मणों और ब्राह्मणवाद के खिलाफ बाते और घोषणाएं होती रहती है। ऐसे में ब्राह्मण कौन है और ब्राह्मणत्व क्या है इसको जानना और इस पर बहस किया जाना जरूरी है।

ब्राह्मण और ब्राह्मणत्व

सनातन संस्कृति के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है ऐसा वेद वचन है और स्मृतियों में भी वर्णित है। अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है। इस तरह से क्रमश: इसमे अनेक तत्वों को ब्राह्मण मानने से तत्वत: निषेध कर दिया गया है और ब्राह्मण क्या है ब्राह्मण कौन है इस मूलभूत प्रश्न का उत्तर देते हुये कहा गया है कि चिन्तन और चरित्र की एकता होने पर ही दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता उपलब्ध होती है। कथनी और करनी के बीच का अंतर लुप्त हो जाये तो व्यक्ति निश्चितरूप से प्रभावशाली हो जाता है। भलाई सिखाई जाये या बुराई यह आगे की बात है पर चिन्तन और चरित्र की एकता तो नितान्त आवश्यक है विशेषतया विकृतियों से घिरे हुए लोगों को संस्कारी बनाने के लिये। ऐसे व्यक्तित्व अब क्रमश: घटते जा रहे हैं जो निजी जीवन में आदर्शों की सभी कसौटियों पर खरे उतरें। साथ ही उस विशिष्टता का उपयोग लोकमङ्गल के लिये जनमानस का परिष्कार करने के निमित्त करने में भावनापूर्ण समग्र तत्परता और तन्मयता के साथ संलग्न रहें। जहाँ यह दोनो बातें मिलती है वहीं ब्राह्मणत्व की क्षमता परिपक्व होती है। ब्राह्मण को परमार्थ परायण होना चाहिये तथा लोकसेवा में निरत रहना चाहिये। यदि आदर्शों को अपनाने में निजी जीवन में तो प्रयोग किया गया व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य, मृदुल व्यवहार, मधुरवाणी आदि का अभ्यास करने में अन्त: संघर्ष तो किया गया पर उसका मूलभूत उद्देश्य स्वार्थ साधन ही रहा तब भी बात नहीं बनेगी। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, चमत्कार, यश, सम्मान जैसे स्वार्थ यदि छूटे नहीं और घूम- फिरकर उसी मलीनता में लिपटा रहा तो प्रयत्न की गरिमा चली जाती है। जिसके भी हृदय में दयाए करुणा का भाव होगा वह स्नेह की आत्मीयता की अभिव्यक्ति किये बिना रह नहीं सकेगा। सेवा धर्म अपनाये बिना अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश या श्रेय प्राप्त करने की कुछ उपयोगिता नहीं रह जाती। स्वार्थसिद्धि में निरत रहना संकीर्णता ही नहीं क्षुद्रता भी है। कुछ पौराणिक ग्रंथों में भी इन्हीं विचारणा को प्रधान माना गया है जो पापकर्म से बचा हुआ है वही सच्चे अर्थों में ब्राह्मण है। सदाचार सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मण से अधिक है। आचारहीन ब्राह्मण शूद्र से भी गया बीता है। विवेक, सदाचार, स्वाध्याय और परमार्थ ब्राह्मणत्व की कसौटी है। जो इस कसौटी पर खरा उतरता है वही सम्पूर्ण अर्थों में सच्चा ब्राह्मण है।

ब्राह्मण का धर्म है तपस्या

ब्राह्मण की देह भौतिकसुखों एवं विषयोपभोग के लिये कदापि नहीं है। यह तो सर्वथा तपस्या का क्लेश सहने और धर्म का पालन करने और अन्त में मुक्ति के लिये ही उत्पन्न होती है। ब्राह्मण का अर्थ है विचारणा और चरित्रनिष्ठा का उत्कृष्ट होना। आदर्शों के निर्वाह में जो संयम बरतना और कष्ट सहना पड़ता है उसे दुखी होकर नहीं वरन् प्रसन्नतापूर्वक सहन करना। ब्राह्मण को तपस्वी होना चाहिये इसका तात्पर्य संयमशीलता से है। संयम की मूलत: चार दिशायें हैं। इंद्रियसंयम, अर्थसंयम, समयसंयम और विचारसंयम। इन्हें साधना अत्यन्त आवश्यक है। ब्राह्मण को चाहिये कि वह सम्मान से डरता रहे और अपमान की अमृत के समान इच्छा करता रहे। वर्ण व्यवस्था की सुरुचिपूर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को समाज में सर्वोपरि स्थान दिया गया है। साथ ही साथ समाज का महान् उत्तरदायित्व भी ब्राह्मणों को दिया गया हैं।

राष्ट्र का महत्वपूर्ण दायित्व

राष्ट्र एवं समाज के नैतिक स्तर को निर्धारित रखना, उन्हें प्रगतिशीलता एवं विकास की ओर अग्रसर करना, जनजागरण एवं अपने त्यागी तपस्वी जीवन में महान् आदर्श उपस्थित कर लोगों को सत्पथ का प्रदर्शन करना ब्राह्मण जीवन का आधार बनाया गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्र की जागृति, प्रगतिशीलता एवं महानता उसके ब्राह्मणों पर आधारित होती हैं। ब्राह्मण राष्ट्र निर्माता होता हैं इसका ज्वलन्त उदाहरण है महर्षि चाणक्य। मानव हृदयों में जनजागरण का गीत सुनाता है समाज का कर्णधार होता है। देशकाल, परिस्थिति एवं पात्र के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करता है और नवीन प्रकाश चेतना प्रदान करता है। त्याग और बलिदान ही ब्राह्मणत्व की कसौटी होती है। राष्ट्र संरक्षण का दायित्व सच्चे ब्राह्मणों पर ही हैं। राष्ट्र को जाग्रत और जीवन्त बनाने का भार ब्राह्मणों पर ही है। ब्राह्मणत्व एक विशिष्ट उपलब्धि है जिसे प्रखर प्रज्ञाभाव, सम्वेदना और प्रचण्ड साधना से और समाज की नि:स्वार्थ आराधना से प्राप्त किया जा सकता है। ब्राह्मण एक अलग वर्ग तो है ही जिसमे कोई भी प्रवेश कर सकता है बुद्ध क्षत्रिय थे स्वामी विवेकानन्द कायस्थ थे पर ये सभी अति उत्कृष्ट स्तर के ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण थे।

जो धर्म साधक वह ब्राह्मण

ब्राह्मण शब्द उन्हीं के लिये प्रयुक्त होना चाहिये जिनमें ब्रह्मचेतना और धर्मधारणा जीवित और जाग्रत हो भले ही वो किसी भी वंश या जाति में क्यों ना उत्पन्न हुये हों। ब्राह्मण वह है जो शान्त, तपस्वी और यजनशील हो। जैसे वर्षपर्यन्त चलने वाले सोमयुक्त यज्ञ में स्तोता मंत्रध्वनि करते हैं वैसे ही मेढक़ भी करते हैं। जो स्वयं ज्ञानवान् हो और संसार को भी ज्ञान देकर भूले भटकों को सन्मार्ग पर ले जाता हो ऐसी पूतात्माओं को ही ब्राह्मण कहते हैं। उन्हें संसार समाज के समक्ष आकर लोगों का उपकार करना चाहिये। परन्तु विडम्बना तो यह है कि पाश्चात्य संस्कृति और शिक्षा के अन्धानुकरणवश नवयुवकों ने आजकल श्रुतस्मृतियों के आदेशानुसार ब्राह्मण के आध्यात्मिक, धार्मिक, पारमार्थिक नियमों का पालन करना तो दूर की बात है बाह्यभौतिक पहचान तक खो रहे हैं यथा सिर पर शिखा (चोटी) रखना, भाल (ललाट) पर तिलक लगाना और कन्धे पर यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने में भी लज्जा का अनुभव करते हैं। इसके बावजूद निन्दा करते हैं अन्य वर्गों की कि आजकल ब्राह्मणों को कोई सम्मानित दृष्टि से नहीं देखता। भई पहले आप तो अपने ब्राह्मणोचितकर्म, परिधान, आचरण, उपासना आदि के बारे में तनिक विचार कीजिए। यदि हम ही अपने ब्राह्मणोचितकर्म नहीं कर रहे हैं तो सम्मान की परिकल्पना करना मिथ्याकांक्षा है।
आब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम्
जय श्रीमन्नारायण

-पंडित रतन शास्त्री (दादिया वाले), किशनगढ़, अजमेर।
-91-9414839743
-लेखक शिक्षक पद से सेवानिवृत है और कर्मकांड के वरिष्ठ पंडित है। किशनगढ़ में निवास करते हैै।

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