पुरूषार्थ ही व्यक्ति को बनाता है मजबूत

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मुनि पूज्य सागर की डायरी से


भीलूड़ा.

अंतर्मुखी की मौन साधना का 15वां दिन
गुरुवार, 19 अगस्त 2021, भीलूड़ा

मेरे जीवन का अनुभव है कि पुरुषार्थ जीवन की हर मुश्किल से लडऩा और अपनी सही दिशा तय करना सिखा देता है। जीवन में लक्ष्य के साथ पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति की सफलता कदम चूमती है। जीवन में कई आपदाएं और बाधाएं आती हैं हैं लेकिन जो पुरुषार्थ से इनका सामना करता है वह व्यक्ति को मजबूत बना देता है। मेरा यह मानना है कि असफल होने पर यदि व्यक्ति अपनी गलती और कमजोरी को स्वीकार कर लेता है तो वह असफलता के अनुभव को प्राप्त करता हुआ सफलता की ऊंचाइयां हासिल कर लेता है। जीवन में वह व्यक्ति पुरुषार्थ नहीं कर सकता जिसका मन और मस्तिष्क संकुचित हो और अपने से बड़ों की बातों को अनदेखा करता हो। ऐसा व्यक्ति अपने भाग्य का भी उपयोग नहीं कर पाता।
मैंने यह देखा भी है कि जो व्यक्ति पुरुषार्थ नहीं करता वह सदैव दूसरों की निन्दा करने में ही लगा रहता है। ऐसा करके वह खुद के भाग्य को तो खराब करता ही है साथ में जीवन में लिखे पुण्य को भी प्राप्त नहीं कर पाता। वह निन्दा का पात्र बना रहता है और आपदाओं से घिरा रहता है। आपदाएं व्यक्ति को कमजोर बनाती हैं। साथ ही व्यक्ति के मन और मस्तिष्क को भ्रमित भी करती हैं। उसे जीवन में सही दिशा भी दिखाई नहीं देती। उसकी सोच विचार की शक्ति भी कमजोर हो जाती है। ऐसा व्यक्ति भाग्य के भरोसे बैठकर परमात्मा की भक्ति भी नहीं कर सकता।
मैं अल्प आयु में आलसी स्वभाव का था। मैं हमेशा यही सोचा करता था कि जो भाग्य में लिखा है वही होगा। इस धारणा की वजह से मैं धर्म-कर्म कुछ भी नहीं करता था और तब तक जीवन में कुछ कर भी नहीं पाया। जब मैंने जीवन में पुरुषार्थ का महत्व समझा और पुरुषार्थ करना शुरू किया तो खुद को ही बदल डाला। मेरे मन और मस्तिष्क की धारणाएं बदल गईं। धर्म-कर्म से जुड़ गया और वर्तमान में अपने आप को वहां तक ले आया हूं जहां मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। पुरुषार्थ से ही आत्मशक्ति जाग्रत होती है।

जिनेन्द्र के प्रति भी अपनवत का व्यवहार रखें


अंतर्मुखी की मौन साधना का 16वां दिन
शुक्रवार, 20 अगस्त, 2021 भीलूड़ा
मुनि पूज्य सागर की डायरी से

मौन साधना का 16वां दिन। आज चिंतन में  विचार आया कि मनुष्य भगवान को श्रीफल, बादाम, चावल, जल, दूध आदि चढ़ाते समय, मंदिर, धर्मस्थल बनाते समय या बनते देख यह क्यों सोचते है कि भगवान तो खाते नहीं और न ही उन्हें मंदिर की आवश्यकता है फिर उन्हें इतना क्यों चढ़ाएं क्यों इतने मंदिर बनवाएं। इससे तो अच्छा इतने पैसे से गरीबों और मजबूर मनुष्य को भोजन करवा दें उन्हें मकान बनवा दें यह सोच ही पाप है।
कुछ देर बाद फिर चिंतन आया कि क्यों मनुष्य ऐसा सोचकर पाप कर्म का बंध कर रहे हैं। क्या इंसान ने कभी यह सोचा कि जब उनके परिचित परिवार या दोस्तों का  जन्मदिन, शादी की सालगिरह या अन्य कोई खुशी का दिन आता है तब उसे उपहार देते हैं। उस समय यह विचार क्यों नहीं आता कि इतने पैसे को किसी गरीब के काम में लगा दूं। तब तो यह कहते है कि ऐसा करना अच्छा नहीं लगेगा सम्बंध खराब हो जाएंगे। इससे हीन सोच और क्या हो सकती है कि एक संसारी संबंध के नाते हम उपहार देते हैं तो जिनेन्द्र भगवान से संबंध बनाते समय अथवा आराधना के लिए द्रव्य चढ़ाते समय इतना क्यों सोचते हैं। इसका तो यही अर्थ निकलता है कि अभी हमारे अंदर जिनेन्द्र के प्रति अपनवत नहीं है।
चिंतन में आया कि जब मनुष्य अपने बेटे- बेटी की शादी में लाखों रुपये खर्च करते हैं उस समय क्यों विचार नहीं करता कि इतना खर्च करने के बजाए मंदिर में जाकर भगवान के सामने विधि-विधान के साथ विवाह करवा दूं। बाकी पैसों से गरीबों का मकान बनवा दूं। तब तो यह विचार आता है कि संसार में यह तो व्यवहार तो निभाना ही पड़ता है। जब एक आम मनुष्य से व्यवहार निभाने के लिए आप इतना सोचते हैं और खर्च करते हैं तो फिर जिनेन्द्र भगवान के प्रति इतना समर्पण का भाव तो होना ही चाहिए कि अच्छी सी अच्छी और अधिक से अधिक साम्रगी चढ़ाने के साथ गरीबों की भी सेवा करूंगा। आप अबको इन चिंतन पर चिंतन करना चाहिए और अपने विचारों में परिवर्तन करना चाहिए।

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