हिन्दू मंदिरों व शिवालयों में स्थापित जिस शिवलिंग की लोग पूजा करते हैं, उसे अधिकतर जननांग ही समझते हैं, लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। इस बारे में वो लोग तो जानते हैं, जिन्होंने धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया है, लेकिन काफी संख्या में लोग वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं। वेद और पुराणों में शिवलिंग के बारे में विस्तार से बताया गया है।
स्कंद पुराण में बताया गया है लिंग शब्द का अर्थ
स्कंद पुराण के अनुसार लिंग शब्द का अर्थ चिह्न, निशानी या प्रतीक है। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनंत शून्य से पैदा हो उसी में गतिमान होने के कारण इसे लिंग कहा गया है। इसे मानव जननांग से जोडऩा गलत है।
अनंत प्रकृति की साक्षात मूर्ति है शिवलिंग
जहां तक शिव के औघड़ स्वरूप की बात है तो सौरमण्डल के ग्रहों के घूमने की कक्षा ही शिव तन पर लिपटे सांप हैं। मुण्डकोपनिषद के अनुसार सूर्य, चंद्रमा और अग्नि शिव के तीन नेत्र हैं। बादलों के झुण्ड जटाएं, आकाश, जल, सिर पर स्थित गंगा और सारा ब्रह्माण्ड भगवान शिव का शरीर है। शिव गर्मी के दौरान दिखने वाले आसमान यानी शून्य की तरह चांदी जैसे दमकने के अलावा सर्दी में मटमैले दिखने वाले आसमान की तरह राख भभूत लिपटे तन वाले हैं। ऐसे में सीधे तौर पर कहा जाए तो भगवान शिव ब्रह्माण्ड या अनंत प्रकृति की साक्षात मूर्ति हैं। वायु प्राण, दस दिशाएं, पंचमुख महादेव के दस कान, हृदय सारा विश्व, सूर्य नाभि, केन्द्र और जलयुक्त कमण्डलु अमृत का प्रतीक हंै।
जलाभिषेक का भी वैज्ञानिक महत्व
शिवलिंग पर जल अर्चन का भी वैज्ञानिक महत्व है। वैज्ञानिक आधार पर देखा जाए तो रचना या निर्माण का पहला चरण बोकर सींचना या उंडेलना हैं। बीज बोने के लिए गर्मी का ताप और जल की नमी की एक साथ जरूरत होती है। इसीलिए आदिदेव शिव पर लगातार जल चढ़ाया जाता है। चूंकि बार-बार बदलाव प्रकृति का नियम है और इसीलिए अभिषेक के बहते जल को जीते-जागते संसार का प्रतीक बताया गया है।
शिवलिंग : अधिकतर लोग अनजान हैं इस सच से

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