मुनि पूज्य सागर की डायरी से

भीलूड़ा/सागवाड़ा.
अंतर्मुखी की मौन साधना का 17 वां दिन
शनिवार, 21 अगस्त, 2021 भीलूड़ा
मौन साधना का 17वां दिन। क्या जीवन में जरूरी है त्याग, संयम यह सोच ही रहा था इतने में एक और विचार आया जैन धर्म के अनुयायी इतने भागों में कैसे बंट गए एक विचार और आया कि आज शाम को स्वाध्याय में क्या करना है बस इसी तरह से न जाने कितने विचार आते-जाते रहे। मैं तो घबरा ही गया कि अगर मन ऐसे ही अपने विचार बदलता रहेगा तो लक्ष्य और लक्ष्य की प्राप्ति दोनों ही नहीं है। मैं फिर पहले विचार पर गया कि जीवन में त्याग और संयम क्यों जरूरी है। इसके बिना मन को वश में करना सम्भव नहीं है। मन के वश में हुए बिना आध्यात्मिक चिंतन तक पहुंचना संभव नहीं है और आत्मिक शांति भी मिलना संभव नहीं है।
मन के विकार से व्यक्ति को मानसिक रोग हो जाता है। दुनिया में हर इलाज की दवाई बनी है पर मानसिक रोग को ठीक करने की कोई दवाई नहीं है। मानसिक रोग की दवाई एक ही है वह है मन में भूत भविष्य न सोचकर वर्तमान जो है उसमें अपने को ढाल लो।
मन के माध्यम से हम कभी-कभी उन वस्तुओं उन व्यक्तियों को अपना बना लेते हैं उनका भोग भी कर लेते हैं। सम्बंध भी बना लेते हैं जिनको आज तक हमने देखा नहीं सुना नहीं। इतना ही नहीं दूसरे व्यक्ति भी मेरे बारे में न जाने क्या क्या सोच लेते हैं। और देखो मन के विचार द्वार उनका उपभोग कर लिए वह हमारे पास नहीं भी आई और न ही ही आरम्भ हुआ परिग्रह भी नहीं हुआ पर कर्म का बन्ध तो हो ही गया।
सीता ने अपने पूर्व भव में एक मुनिराजजी और एक आर्यिका माताजी को देखा जो धर्म की चर्चा करते थे पर सीता ने अपने पूर्व भव में मन ही मन यह सोच लिया कि यह दोनों अकेले में क्या चर्चा कर रहे हैं बस इतना सा मन में सोचने से सीता की पर्याय में चारित्र पर लांछित लगा और उन्हें वन जाना पड़ा। एक सेठ सामयिक बैठे थे। उसी समय उन्हें प्यास लगी पर सामायिक से नहीं उठे। मन ही में बार-बार पानी का विचार करने से उस सेठ ने मेढक़ की पर्याय का बन्ध कर लिया वह मरकर मेढक़ ही बना। मन में आए विचारों का भी बन्ध हो जाता है।